हर युग में प्रासंगिक रहा है शिक्षक
विगत कुछ वर्षों में तकनीकी के क्षेत्र में हुए बदलाव ने शिक्षण व्यवस्था को भी
प्रभावित किया है, विशेष रूप से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के विस्तार ने शिक्षण पद्धति
पर व्यापक असर डाला है, और बदलते परिवेश में असंख्य लोग शिक्षक नामक संस्था की आवश्यकता
और प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करने लगे हैं | उनको लगता है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस
विद्यार्थी को अंतर्वस्तु की जिस दुनिया में ले जा सकता है, उस दुनिया में शिष्य को
पहुँचाना किसी भी शिक्षक के लिए सम्भव नहीं है | निश्चित रूप से तकनीकी ने शिक्षण प्रक्रिया
को बदला है, एवं शिक्षार्थी के लिए इंटरेक्टिव ज्ञानार्जन का एक विकल्प प्रदान किया
है | तथ्य को टेक्स्ट, आवाज, एवं दृश्य के संगम के रूप में प्रस्तुत करके उसकी ग्राह्यता
को बढ़ाकर आधुनिक तकनीकी ने एक नया परिदृश्य तैयार कर दिया है जो तेजी से विद्यार्जन
के केंद्र रहे शिक्षक नामक संस्था के सामने चुनौती प्रस्तुत कर रही है | आज ए आई के
कई टूल्स उपलब्ध हैं जो विद्यार्थी को दत्त-कार्य पूरा करने में सहायता करते हैं तो
वहीं कई ऐसे टूल्स भी हैं जो शिक्षक को शिक्षार्थी के कार्य की समीक्षा करने एवं मूल्यांकन
प्रक्रिया को त्वरित गति से सम्पादित करने में सहायक हैं | ऐसे में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस
आधारित तकनीकी शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों को कार्य संपादन में सहायक है, परन्तु देखा
जाय तो कार्य संपादन की इस प्रक्रिया में शिक्षार्थी की आलोचनात्मक दृष्टि का अभाव
दिखलाई देता है तो वहीं शिक्षक की समीक्षात्मक दृष्टि भी नहीं दिखती है |
ज्ञानार्जन प्रक्रिया के दौरान आलोचनात्मक दृष्टि का विकास होना नितांत आवश्यक है जो
विद्यार्थी के बौद्धिक विकास के साथ ही मानसिक विकास की प्रक्रिया भी सुनिश्चित करता
है | एक शिक्षार्थी के लिए तथ्य को जानने के साथ ही उसके अन्दर तथ्य की विशलेषणात्मक
क्षमता का विकास होना भी जरुरी है जिसमें शिक्षक की महत्ता महत्वपूर्ण नजर आती है |
शिक्षण पद्धति में विज्ञान अथवा तकनीकी का प्रयोग हमेशा ही देखा गया है, एवं आज
भी शिक्षक शिक्षण प्रक्रिया में इसका यथोचित उपयोग कर रहे हैं | ए आई की समझ रखने वाला शिक्षक ए आई
से दूरी बनाये रखने वाले शिक्षक से आगे अवश्य रह सकता है क्योंकि शिक्षा में नवाचारों
का प्रयोग प्रत्येक युग में प्रासंगिक रहा है चाहे वह वर्तमान युग हो या फिर प्राचीन
युग | प्राचीन काल से लेकर आज तक शैक्षणिक वातावरण बदलता आया है, एवं शिक्षक ने उन
सभी प्रविधियों को शिक्षण प्रक्रिया का अंग बनाया है जिनमें विद्यार्थी का हित निहित
रहा है | शिक्षक, शिक्षार्थी के सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित करने वाली वह संस्था
है जो उसे जीवन के उद्देश्य समझाने के साथ ही उसमें सामाजिक भाव का विकास भी करती है,
एवं शिक्षार्थी के अन्दर मूल्यबोध, राष्ट्रबोध, कर्तव्यबोध एवं सेवाबोध का भाव विकसित
करने में सहायता करती है | अबोध से बोध की ओर ले जाने वाली यह संस्था हमारी संस्कृति
का अनिवार्य हिस्सा है जो सदियों से ही हमारी जड़ों को सिंचित करती रही है, यही कारण
है कि हम हर युग में ही परिस्थितिजनित चुनौतियों का सामना करके आगे बढ़ने में सफल रहे
हैं | महान चिंतक एवं आचार्य चाणक्य ने शिक्षकों की भूमिका को स्पष्ट करते हुए लिखा
है कि शिक्षक कभी साधारण नहीं होता है, प्रलय और निर्माण दोनों उसकी गोद में खेलते
हैं | ऐसे में शिक्षक नामक संस्था समाज की दिशा एवं दशा निर्धारित करने का सामर्थ्य
रखती है | उन्होंने शिक्षार्थी द्वारा अर्जित ज्ञान पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि
तमाम भौतिक गुणों के होने के बावजूद विद्या से हीन व्यक्ति गंधहीन किंशुक फूल के समान
है जिसे कोई भी पसंद नहीं करता | प्रख्यात शिक्षक डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन का मानना
था कि शिक्षक वह नहीं है जो छात्र के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूंसे, अपितु वास्तविक
शिक्षक वह होता है जो अपने विद्यार्थियों को सोचने एवं समझने के लिए प्रोत्साहित करता
है | डॉ० राधाकृष्णन के ये विचार आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीकी को शिक्षक नामक
संस्था पर वरीयता देने वाले लोगों को जवाब भी देते हैं क्योंकि इस तकनीकी ने भले ही
विद्यार्थी के समक्ष तथ्यों का विशाल समुद्र प्रस्तुत कर दिया है परन्तु उसकी वास्तविक
समझ एवं आलोचनात्मक दृष्टि विकसित करने के लिए शिक्षक नामक संस्था का होना अत्यंत आवश्यक
है | तथ्यों के समुद्र में गोता लगाकर ज्ञान रुपी मोती को खोजने में शिक्षक द्वारा
प्रदत्त दृष्टि शिक्षार्थी को भटकने नहीं देगी, एवं विद्यार्थी के अन्दर शिक्षक द्वारा
विकसित की गयी विश्लेषणात्मक क्षमता उसे सही एवं गलत को अलग करने में सहायक होगी |
जहाँ तक शिक्षक नामक संस्था की प्रासंगिकता का प्रश्न है, यह संस्था प्रत्येक युग
में ही प्रासंगिक रही है | यही कारण है कि विश्व की प्राचीनतम सनातन संस्कृति में इस
संस्था को गोबिंद अथवा ईश्वर से महत्वपूर्ण बताया गया है | सतयुग से लेकर त्रेतायुग
तक, एवं द्वापरयुग से लेकर वर्तमान कलयुग तक हिन्द की धरती पर अनेकों गुरुओं ने जन्म
लिया है जिनकी शिक्षा में विद्यार्थी के व्यक्तित्व एवं आचरण पर बल दिया गया है,
जिसके केंद्र में मूल्यबोध जैसा बीज-तत्व नजर आता है | प्राचीन गुरुकुलों में गुरु
वशिष्ठ से लेकर विश्वामित्र ने, एवं सांदिपनी से लेकर वेदव्यास ने विद्यार्थी के सर्वांगीण
विकास पर ध्यान दिया जिसमें ज्ञान के साथ मूल्य भी थे क्योंकि उनका मानना था कि मूल्य
के बिना ज्ञान का महत्व नहीं है | उन्होंने अपने शिष्यों के लिए विषम परिस्थितियों
में जीवन की कठिनाईयों से लड़ते समय भी मूल्य आधारित आचरण की शिक्षा दिया जिसे कालान्तर
में संत कबीर, गौतम बुद्ध, रामकृष्ण परमहंस एवं नानकदेव जैसे गुरुओं ने भी आगे बढ़ाया
| आधुनिक भारत में भी स्वामी विवेकानंद, पंडित मदन मोहन मालवीय, एवं डॉ० सर्वपल्ली
राधाकृष्णन जैसे अनेक आदर्श शिक्षकों ने भी शिक्षा के उद्देश्य के केंद्र में ज्ञानार्जन
के साथ मूल्यबोध को रखा क्योंकि उनका मानना था कि मूल्यों के बिना शिक्षा का उद्देश्य
अधूरा है जो एक ऐसे समाज का निर्माण करेगा जिसमें आर्थिकोपर्जन के साधन तो होंगे परन्तु
पर-पीड़ा नगण्य होगी, जिससे सामाजिक मान्यताएं खंडित होंगी एवं सामाजिक संस्थाओं पर
इसका प्रतिकूल प्रभाव होगा |
निश्चित रूप से समाज में जितने भी परिवर्तन हुए हैं उनमें मूल्यआधारित या फिर मूल्यरहित
शिक्षा ही महत्वपूर्ण कारक रही है क्योंकि यही वह कारक है जिसने व्यक्ति अथवा समाज
के उद्देश्य को निर्धारित करने का कार्य किया है | मूल्याधारित शिक्षा ने सामाजिक उत्थान
का मार्ग प्रशस्त किया है तो वहीं मूल्यरहित शिक्षा ने एक ऐसे समाज को निर्मित किया
है जिसमें व्यक्तिगत उपलब्धि भले ही दिखती है परन्तु वह समाज एवं राष्ट्रहित में नहीं
दिखलाई देती है | तकनीकी का प्रयोग कदाचित हानिकारक नहीं है परन्तु इस तकनीकी की मृगतृष्णा
हमें मूल्यबोध के भाव से वंचित न कर दे, इसपर भी विचार करना होगा | जिस प्रकार से कार्यों
को सम्पादित करने के लिए छात्र ए आई का उपयोग कर रहे हैं, वह दिन भी संभावित है जब
उनमें आलोचनात्मक दृष्टि एवं विश्लेषणात्मक क्षमता जैसा अनिवार्य कौशल नहीं होगा और
वे तकनीकी दासता का दंश झेलने को मजबूर होंगे | निश्चित रूप से ऐसी किसी भी संभावना
को समाप्त करने का कार्य शिक्षक नामक संस्था द्वारा ही किया जा सकेगा जिसे समाज का
एक वर्ग अप्रासंगिक समझ रहा है | विशेष रूप से भारतीय शिक्षा के केंद्र में जब तक
मूल्यों की बात होगी, शिक्षक नामक संस्था प्रासंगिक बनी रहेगी |

टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें