हिन्दी
अपने ही देश में हिन्दी, सिसक- २ कर रोती है । अंग्रेजी सोये डनलप पर, हिन्दी खाट पर सोती है ।। निज भाषा उन्नति अहै, भारतेन्दु जी कहते थे । दिल में बसाकर हिन्दी, इसीकी दुनिया में रहते थे ।। केवल भाषा नहीं थी हिन्दी, भारतीयों का मान थी । निज गौरव की अनुभूति, करोड़ों का अभिमान थी ।। ब्रज, अवधी और मैथिली, भोजपुरी को भाती थी । संस्कृत बोलने वालों को, अपनी ओर लुभाती थी ।। हिन्दी संस्कार की भाषा है, खुश्बू इससे आती है । राष्ट्रभाषा के रूप में, राष्ट्रप्रेम दिल में जगाती है ।। अंग्रेजी की चकाचौंध में, हिन्दी से हम दूर हुए । मातृभाषा भी अपनी, बिसराने को मजबूर हुए ।। अंग्रेजीयत की चाह में, मन आज गुलाम हुआ । सोच पराई हो गई, विचार भी गुमनाम हुआ ।। सोचो ऐ हिन्द सपूतों, इसका न तिरस्कार करो । माँ रुपी हिन्दी से, गैरों सा न व्यवहार करो ।।