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हिन्दी

अपने ही देश में हिन्दी, सिसक- २ कर रोती है । अंग्रेजी सोये डनलप पर, हिन्दी खाट पर सोती है ।। निज भाषा उन्नति अहै, भारतेन्दु जी कहते थे । दिल में बसाकर हिन्दी, इसीकी दुनिया में रहते थे ।। केवल भाषा नहीं थी हिन्दी, भारतीयों का मान थी । निज गौरव की अनुभूति, करोड़ों का अभिमान थी ।। ब्रज, अवधी और मैथिली, भोजपुरी को भाती थी । संस्कृत बोलने वालों को, अपनी ओर लुभाती थी ।। हिन्दी संस्कार की भाषा है, खुश्बू इससे आती है । राष्ट्रभाषा के रूप में, राष्ट्रप्रेम दिल में जगाती है ।। अंग्रेजी की चकाचौंध में, हिन्दी से हम दूर हुए । मातृभाषा भी अपनी, बिसराने को मजबूर हुए ।। अंग्रेजीयत की चाह में, मन आज गुलाम हुआ । सोच पराई हो गई, विचार भी गुमनाम हुआ ।। सोचो ऐ हिन्द सपूतों, इसका न तिरस्कार करो । माँ रुपी हिन्दी से, गैरों सा न व्यवहार करो ।।

वो गाँव कहाँ है ?

पथिक भी पाता था ढेरों प्यार जहाँ, झोपड़ी में प्यार समेटे गाँव कहाँ है । बनने लगे पक्के मकान जबसे ‘दीप, ‘अतिथि देवो भवः’ का भाव कहाँ है ।। कट गया जबसे आँगन घर के नक़्शे से, साथ भोजन की परम्परा कहाँ है । बाँट लेते थे दुःख-दर्द चौपाल में, चौपाल लगे जहाँ वो पीपल छाँव कहाँ है ।। दिखती नहीं है गौरैया घर-आँगन में, हर कोई खोया है अजीब उलझन में । कट गया है जबसे वो बुढा बरगद, कोयल की कूक कौवे की कांव कहाँ है ।। दिखते नहीं आंसू पड़ोसी की आँखों में, गैरों के दर्द की अब परवाह कहाँ है । जवां हो जाते बच्चे तकनीक के गोद में, बच्चों का बच्चों से लगाव कहाँ है ।।