वो गाँव कहाँ है ?



पथिक भी पाता था ढेरों प्यार जहाँ, झोपड़ी में प्यार समेटे गाँव कहाँ है
बनने लगे पक्के मकान जबसे ‘दीप, ‘अतिथि देवो भवः’ का भाव कहाँ है ।।
कट गया जबसे आँगन घर के नक़्शे से, साथ भोजन की परम्परा कहाँ है
बाँट लेते थे दुःख-दर्द चौपाल में, चौपाल लगे जहाँ वो पीपल छाँव कहाँ है ।।
दिखती नहीं है गौरैया घर-आँगन में, हर कोई खोया है अजीब उलझन में
कट गया है जबसे वो बुढा बरगद, कोयल की कूक कौवे की कांव कहाँ है ।।
दिखते नहीं आंसू पड़ोसी की आँखों में, गैरों के दर्द की अब परवाह कहाँ है
जवां हो जाते बच्चे तकनीक के गोद में, बच्चों का बच्चों से लगाव कहाँ है ।।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

छपास रोग ( व्यंग्य )

सूरजकुण्ड मेला : नये सन्दर्भों में परम्परा का ताना- बाना

मूल्यपरक शिक्षा का आधारस्तम्भ है शिक्षक