थर्ड-जेंडर के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव जरुरी
एक दशक पहले भारत की सर्वोच्च न्यायालय में जब थर्ड-जेंडर को
संवैधानिक मान्यता देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया तो वर्षों से लैंगिक
भेदभाव का दंश झेलने वाले किन्नर समुदाय को एक नयी रौशनी दिखी | एक तरफ ‘तीसरे लिंग’
के रूप में मान्यता मिलने से पहचान का संकट दूर हुआ तो वहीं सरकार को इस समुदाय के
लिए कानून बनाने के साथ ही इनके लिए नीति निर्धारण का मार्ग प्रशस्त हुआ | इस फैसले
में न्यायालय ने सरकार से इस श्रेणी के लिए नौकरियों में आरक्षण प्रदान करने को भी
कहा था जिससे इन्हें मुख्यधारा में लाया जा सके, एवं सरकार को इस समूह के लिए स्पष्टता
मिल सके एवं क़ानूनी अडचनों से बचा जा सके | वर्ष 2019 में सरकार ने ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 2019 को लागू कर एक ऐतिहासिक कानून को अस्तित्व में लाने का कार्य
किया जिससे थर्ड-जेंडर के रूप में जन्म लेने वाला व्यक्ति भी मौलिक अधिकारों के साथ
अपने जीवन को जी सके | जनवरी 2020 से अस्तित्व में
आये इस अधिनियम का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी ट्रांसजेंडर के साथ सम्मान
एवं गरिमा के साथ व्यवहार किया जाए | ‘महिला’ एवं ‘पुरुष’ के साथ ही तीसरे लिंग को
भी समान अधिकार तथा अवसर प्राप्त हों | यह अधिनियम किसी भी ट्रांसजेंडर व्यक्ति
को शारीरिक एवं मानसिक दुर्व्यवहार से बचाने का क़ानूनी स्वरूप प्रदान करता है जिससे
इस समुदाय के किसी भी व्यक्ति का भावनात्मक अथवा शारीरिक शोषण न हो | ऐसा कोई भी व्यक्ति
जो किसी ट्रांसजेंडर व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार करता है उसे 6 महीने तक की सजा हो सकती है | यह अधिनियम ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की सामाजिक सुरक्षा एवं स्वास्थ्य
देखभाल आवश्यकताओं को सम्बोधित तो करता है परन्तु अभी भी किन्नर समुदाय न सिर्फ सामाजिक
स्तर पर कई प्रकार का दंश झेलता है अपितु स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राप्त करने में भी
काफी पीछे खड़ा दिखता है | सरकार ने ‘तीसरे लिंग’ के रूप में पंजीकरण के लिए एक पोर्टल
भी शुरू किया है जिसका उद्देश्य ऐसे किसी व्यक्ति को आसानी से सर्टिफिकेट प्रदान करना
है जिससे वह देश के किसी भी कोने से पहचान पत्र प्राप्त कर सके |
भारतीय संविधान में लैंगिक आधार पर किसी प्रकार के विभेद की
मनाही है जिससे स्पष्ट होता है कि पुरुष हो या महिला या फिर थर्ड-जेंडर, सभी के मौलिक
अधिकार समान हैं एवं समाज की कोई भी इकाई लैंगिक आधार पर भेद-भाव नहीं कर सकती है |
परन्तु वास्तविकता यह है कि सामाजिक हेय दृष्टि ने किन्नर समुदाय को सार्वजनिक जीवन
से अलग-थलग कर दिया है जिससे कानूनी मान्यता मिलने के बाद भी इनकी सामाजिक स्वीकार्यता
का स्तर अत्यंत निचले स्तर पर दिखती है | विडम्बना यह है कि समाज के लोकलाज की दुहाई
देने वाले अधिसंख्य परिवार भी कभी इनकी सुध नहीं लेते हैं जिससे किन्नर के रूप में
जन्म लेने वाले बच्चे का जीवन-पथ कभी सामान्य नहीं हो पाता है, और जैसे ही वह बच्चा
परिवार से कटता है उसे समाज के खंडित मान्यताओं का दंश झेलना पड़ता है | समाज न तो थर्डजेंडर
व्यक्ति को स्वीकारता है और न ही सामाजिक इकाईयों में उन्हें सहज रूप से जीने देता
है जिसके कारण एक ऐसी सामाजिक इकाई जन्म लेती है जिसकी अपनी दुनिया है, अपने जीवन मूल्य
एवं रीति तथा नीति है | यह रीति एवं नीति अँधेरी दुनिया में जीवन जीने वाले लाखों लोगों
की है जिसे समाज इंसान ही नहीं समझता | ‘हिजड़ा’ एवं ‘खोजवा’ जैसे सामाजिक विकृति से
ऊपजे शब्द गाली के रूप में अनगिनत बार उनकी आत्मा को छलनी करते हैं जो उनकी मानसिक
स्थिति पर नकारात्मक असर डालते हैं | तथाकथित सभ्य समाज किसी किन्नर व्यक्ति को अपना
हिस्सा नहीं समझता, यही कारण है कि सरकार के प्रयास के बावजूद अभी भी उनकी सामजिक स्थिति
में सुधार न के बराबर ही हुआ है | शुभ अवसरों पर किसी के घर आने वाले किन्नर व्यक्ति
को कई बार अभद्रता का सामना करना पड़ता है, साथ ही उन्हें पैसा उगाहने वाले समूह के
रूप में ही देखा जाता है, जिससे उन्हें पैसे भले ही मिल जायें परन्तु अधिसंख्य घरों
में उन्हें सम्मान नहीं मिलता है | यहाँ पर लोगों को यह समझना चाहिए कि इसी बहाने यह
समुदाय हमारी खुशियों में सम्मिलित हो पाता है क्योंकि सार्वजनिक जीवन में प्रायः इन्हें
दूर ही रखा जाता है | हालाँकि विगत कुछ वर्षों में हुई कुछ घटनाओं ने भी किन्नर समुदाय
की छवि को धूमिल किया है जिनमें अधिसंख्य बार बहुरुपिया का भेष धरने वाले नकली व्यक्ति
किन्नर बनकर सड़क के रेड-लाइट पर, किसी ट्रेन में अथवा किसी आयोजन में जबरदस्ती किसी
व्यक्ति से धन उगाही करते नजर आये हैं | ऐसे में पहले से ही सामाजिक उपेक्षा झेल रहे
किन्नर व्यक्तियों को सामाजिक कोपभाजन का शिकार होना पड़ता है जो सही नहीं है |
पुलिस प्रशासन को ऐसे बहुरुपिया व्यक्तियों को पकड़कर क़ानूनी कार्यवाही करना चाहिए जिससे
किन्नर का छद्म भेष धरे घूम रहे लोगों को यथोचित सजा दिलाई जा सके |
हमें यह समझना चाहिए कि यदि कोई व्यक्ति थर्ड-जेंडर के रूप में
जन्म लेता है तो उसमें उसका कोई दोष नहीं है, यह मात्र एक जैविक आधार है जो उसे महिला
अथवा पुरुष से थोड़ा भिन्नता प्रदान करती है | किन्नर व्यक्ति भी भावनात्मक रूप से महिला
अथवा पुरुष की भांति ही होता है, वह भी प्रेम, स्नेह एवं सम्मान की अपेक्षा करता है
और जब उसे यह नहीं मिलता है तो वह समाज के हाशिये पर पहुँच जाता है जहाँ वह एक प्रकार
से दोयम जिंदगी जीने को मजबूर हो जाता है | निश्चित रूप से यह समानता के संवैधानिक
आधार पर प्रहार है जिसे समाज द्वारा अभी भी किया जा रहा है जबकि सर्वोच्च न्यायालय
एवं सरकार दोनों ने ही ऐसे किसी विभेद को मना किया है | तीसरे लिंग के व्यक्तियों को
सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के रूप में मान्यता देने के पीछे न्यायालय की
मंशा यही थी कि वर्षों से उपेक्षित इस वर्ग को शैक्षणिक संस्थानों के साथ ही सरकारी
संस्थानों में भी यथोचित अवसर मिल सके जिससे यह समूह सामाजिक जीवन को गौरव के साथ जी
सके | विकसित भारत के लक्ष्य को प्राप्त करने की ओर अग्रसर हमारे देश में थर्ड-जेंडर
को भी यथोचित अवसर मिले जिससे वर्षों से उपेक्षित यह इकाई सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों
में अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर सके | इस बार जब जनगणना के आंकड़ें आयेंगे तो पहली बार
देश में थर्ड-जेंडर की संख्या स्पष्ट होगी क्योंकि यह पहला अवसर होगा जब लैंगिक स्तर
पर तीन श्रेणी में आंकड़ें एकत्र किये जायेंगे | निश्चित रूप से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार
सरकार अपनी नीतियों में इस समुदाय के लिए समान अवसर देने के लिए प्रयास करेगी | हालाँकि
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि समाज कितनी जल्द थर्ड-जेंडर के प्रति अपने दृष्टिकोण में
बदलाव करता है | जिस भी परिवार में कोई बच्चा तीसरे लिंग के रूप में जन्म लेता है,
सबसे पहले माता-पिता एवं परिवार को उस बच्चे को उसी रूप में स्वीकारना होगा एवं उसे
सामाजिक उपेक्षा से बचाना होगा जिससे वह अपने जीवन को सार्थक कर सके | सामाजिक स्वीकार्यता
एवं यथोचित सम्मान किसी भी थर्ड-जेंडर व्यक्ति को हीनता के बोध से मुक्त करेगी | जिस
दिन समाज इन्हें अलग मानना छोड़ देगा, उस दिन सर्वोच्च न्यायालय एवं सरकार का प्रयास
सार्थक सिद्ध होगा |
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