सूरजकुण्ड मेला : नये सन्दर्भों में परम्परा का ताना- बाना
देश के प्रमुख लक्खी मेलों में शुमार ‘सूरजकुण्ड अन्तर्राष्ट्रीय क्राफ्ट मेला’ एक आधुनिक लोक सम्मेलन है । दिल्ली से सटे हरियाणा के शहर फरीदाबाद को सूरजकुण्ड मेले के आयोजन के लिए भी विशेषतौर पर जाना जाता है । इस मेले में न सिर्फ परम्परागत कलाओं की जीवन्त झाँकी देखने को मिलती है बल्कि कई मायनों में इस मेले से आधुनिकता की भीनी- भीनी खुश्बू भी आती है, ऐसा लगता है जैसे मेले में गाँव और शहर दोनों के रंग मिलाकर किसी ने चित्रकारी की हो । मेले का नैसर्गिक स्वरूप हो या फिर आधुनिकता का तड़का, ४० एकड़ में फैले मेला परिसर में दोनों का बोध होता है । एक तरफ जहाँ यह मेला ग्रामीण कलाकारों को मंच प्रदान करता है वहीं दूसरी तरफ शहरी लोगों के रूप में आधुनिकता से ओत- प्रोत दर्शक भी । प्रतिवर्ष लाखों आगन्तुकों को अपनी तरफ खींचकर ले आने वाले इस मेले में विदेशी सैलानियों की संख्या भी हजारों में होती है । सार्क देशों के अलावा अन्य पड़ोसी देशों की सहभागिता इस मेले को न सिर्फ अन्तर्राष्ट्रीय दर्जा प्रदान करती है अपितु यह विश्व का सबसे बड़ा क्राफ्ट मेले का दर्जा भी हासिल कर चुका है । सूरजकुण्ड मेला प्राधिकरण हरियाणा एवं केंद्र सरकार के कुछ प्रमुख मन्त्रालयों के साथ मिलकर इसके सफल आयोजन का ताना- बाना बुनता है । प्रतिवर्ष करोंड़ों का व्यापार देने वाला यह मेला हजारों लोगों को रोजगार भी उपलब्ध कराता है । इस मेले में जहाँ सामाजिक एवं संस्कृति का अद्वितीय सम्मिलन देखने को मिलता है वहीं व्यापारिक दृष्टिकोण भी परिलक्षित होता है । इस मेले का स्वरुप कुम्भ, सिंहस्थ, पुष्कर, सोनपुर, ददरी मेलों से बिल्कुल अलग है । अन्य मेलों में जहाँ पुराना स्वरुप बचाने की कोशिश देखने को मिलती है वहीं यह मेला आधुनिक बदलाव को हर साल अंगीकार करता हुआ देखा जा सकता है । देखा जाय तो लोक संस्कृति की पहचान कराने वाले मेलों का उद्देश्य मुख्य रूप से लोगों को एकत्र कर उन्हें सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ना था परन्तु इनके आयोजन के पीछे एक अर्थशास्त्र भी छिपा दिखलाई पड़ता है जिसमें आयोजन समिति के व्यापारिक हित को महसुस किया जा सकता है ।
सूरजकुण्ड मेले का आयोजन पहली बार १९८७ में किया गया था । जिसका मूल उद्देश्य लोक कलाकारों एवं शिल्पकारों को एक मंच प्रदान करना था । आधुनिक चकाचौंध में सामाजिक एवं सांस्कृतिक जकड़न का शिकार शहरी व्यक्ति जब मेला परिसर में आता है तो निश्चित तौर पर कुछ न कुछ सन्देश लेकर ही जाता है । गांवों से कट चुके लोगों को जहाँ बचपन याद आता है वहीं गाँव को न जानने वाले बच्चे के लिए यह परिवेश फ़िल्मी गांवों से अलग दिखता है । यह मेला न सिर्फ शहर को गाँव से जोड़ता है बल्कि शहर में रह रहे लोगों को गाँव का एहसास भी कराता है । यही कारण है कि एक बड़ी संख्या में शहरी लोग इस मेले में आते हैं और हर साल इस संख्या में बढ़ोत्तरी देखी जा सकती है । गगनचुम्बी इमारतों में रहने वाला शहरी जो अपनी नींव को विस्मृत कर चुका है, जब मेला प्रांगण में कदम रखता है तो धुल के कण उससे ऐसे लिपट जाते हैं जैसे उनसे बिछड़ चुका कोई हिस्सा वापस लौट आया हो ।
एक तरफ समाज में जहाँ सामाजिक एवं सांस्कृतिक जकड़ने तेजी से पाँव पसार रही हैं और देश में साम्प्रदायिक सौहार्द सिकुड़ रहा है, यह मेला सामाजिक एवं सांस्कृतिक मेल जोल को बढ़ाने का कार्य भी करता है । मेले में बनारस के बुनकर, लखनऊ के चिकन कारीगर, कोल्हापुर के चप्पल व्यवसायी, कश्मीर के शाल व्यापारी, मधुबनी पेन्टिंग की कला में महारथ शिल्पकार सहित कांजीवरम एवं देश के विभिन्न हिस्सों से आये लघु एवं कुटीर उद्योग से जुड़े हजारों लोग भिन्न-भिन्न संस्कृतियों को माला के एक धागे में पिरोने का कार्य करते हैं । इस मेले में गाँव का अलमस्त, फक्कड़ और अपनी धुन में मस्त गाँव का भोला-भाला कोई लोक कलाकार है तो अपनी प्रस्तुति से अपने देश की संस्कृति को दिखा देने वाला विदेशी कलाकार भी । कपड़े पर अपनी कढाई कौशल को प्रस्तुत करने वाला बुनकर है तो वहीं विभिन्न जगहों पर इस्तेमाल किये जाने वाले गहनों से उस मिट्टी की झलक दिखलाने वाला शिल्पी भी । वैसे तो मेले में विभिन्न राज्यों से आये कलाकार एवं देशज तकनीकी से कढाई-बुनाई में संलग्न सैकड़ों लोग हिस्सा लेते हैं परन्तु जो राज्य ‘थीम राज्य’ के रूप में हिस्सा लेता है, उसे आयोजन समिति विशेष महत्व देती है । उस राज्य को मेला प्राधिकरण प्रवेश द्वार को राज्य के किसी प्रमुख संरचना के अनुसार बनाने की छुट देता है । ‘थीम राज्य’ की मेले में सहभागिता भी अन्य राज्यों की तुलना में अधिक होती है ।
जब १९८७ में इस मेले का आयोजन पहली बार हुआ तो ‘थीम राज्य’ के रूप में कोई राज्य हिस्सा नहीं लिया था परन्तु जब अगले साल मेले का आयोजन दूसरी बार किया गया तो सर्वप्रथम राजस्थान को ‘थीम राज्य’ के रूप में सहभागिता करने का अवसर मिला । तबसे लेकर आज तक कोई न कोई राज्य ‘थीम राज्य’ के रूप में हिस्सा ले रहा है । अब तक सभी राज्यों को यह गौरव हासिल हो चुका है । कुछ राज्य तो एक से अधिक बार यह उपलब्धि अपने नाम कर चुके हैं । मेले में ‘थीम राज्य’ की कला, संस्कृति, रहन-सहन, पहनावा एवं खान-पान की झलक विशेष तौर पर देखने को मिलती है । इसके अलावा कुछ वर्षों से सहयोगी राष्ट्र के रूप में भी कोई न कोई देश हिस्सा लेता है जिसकी सामाजिक एवं सांस्कृतिक झलक मेला में आये लोगों को देखने को मिलती है । सहयोगी देशों की सहभागिता अन्य देशों की तुलना में ज्यादा होती है या यूँ कह लें की उस देश के कलाकारों को ज्यादा महत्व मिलता है । केन्द्र सरकार का विदेश, पर्यटन एवं वाणिज्य एवं वस्त्र मन्त्रालय इस मेले के दौरान सहयोगी देश के कलाकारों तथा लघु एवं कुटीर उद्योग से जुड़े लोगों को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराता है । भले ही हरियाणा सरकार इस आयोजन को मूर्तरूप देती है परन्तु केंद्र सरकार सुरक्षा सहित विविध पहलुओं पर अग्रणी भूमिका में नजर आती है ।
किसी भी मेला की जान उसमें मिल रहे व्यंजन ही होते हैं जिनकी सदियों से एक विशेष परम्परा रही है । सूरजकुण्ड मेले ने इस परम्परा को जीवित रखा है । मेले में की गई खान-पान की व्यवस्था भी आधुनिकता संग परम्परागत व्यंजन शैली की झलक प्रस्तुत करती है । सहभागी राज्य के प्रमुख पकवान मेला भ्रमण को आये आगन्तुकों को विशेष तौर पर पसन्द आते हैं । मेला प्राधिकरण इस बात का विशेष ध्यान रखता है कि मेले में आये लोगों को सहभागी राज्य के विशेष पकवान का स्वाद जरुर चखने को मिले । सूरजकुण्ड के इस मेले को लोक कलाओं के प्रोत्साहन के लिए भी विशेष तौर पर जाना जाता है । देश विदेश की विभिन्न कलाओं को यह अंतरराष्ट्रीय मंच हमेशा ही प्रोत्साहित करता है । मेला प्राधिकरण विलुप्त हो रही लोक कलाओं को संरक्षण प्रदान करने के साथ ही ग्रामीण एवं जनजातीय समूह के कलाकारों को अपनी कला दिखाने का अवसर प्रदान करता है । मेला परिसर के बीचों-बीच ‘चौपाल’ नामक रंगशाला अनेकों लोक कलाकारों की विहंगम प्रस्तुति की गवाह बनती है । देश- विदेश के विभिन्न कोने से आये कलाकार अपने प्रस्तुति से मेले में आये लोगों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं । स्थानीय, क्षेत्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय लोक कलाकार जब अपनी कला के जरिये लोगों को सामाजिक एवं सांस्कृतिक सन्देश देता है तो तालियों की गडगडाहट से मेला परिसर गूंज उठता है । झारखण्ड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तराखण्ड, हिमाचल, तेलंगाना सहित देश के अन्य आंचलिक हिस्सों से आये कलाकार जब इस मंच पर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं तो मेला प्रेमी उनकी प्रस्तुतियों में खो से जाते हैं । मेले के दौरान यह रंगशाला विदेश से आये लोक कलाकारों को भी समभाव से प्रोत्साहित करती नजर आती है । विदेशी नृत्य हो या गीत-संगीत, कोई परम्परागत वाद्य यंत्र हो या फिर नाट्य प्रस्तुति, विदेश से आया लोक कलाकार भी सम्मान पाता है । सार्क देशों अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, श्रीलंका एवं भारत की अनेक लोक कलाएं इस मंच को जीवन्त बना देती हैं । धोबी नृत्य जैसी परम्परागत कला जो लगभग मृतप्राय है, को जब इस मंच से सम्बल मिलता है तो निश्चित तौर पर कला और कलाकार दोनों को ही नया जीवन मिल जाता है ।
भौगोलिक, व्यापारिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से महत्व रखने वाले इस मेले का प्रत्येक वर्ष न सिर्फ मेला प्राधिकरण को इन्तजार रहता है बल्कि लघु एवं कुटीर उद्योग से जुड़े हजारों लोगों के साथ लोक कलाकारों एवं मेला प्रेमियों को भी इस मेले का बेसब्री से इन्तजार रहता है । आधुनिकता एवं परम्परागत दोनों पहलुओं को समेटे हुए यह मेला शहरवासियों को ग्रामीण परिवेश की झलक दिखलाता है, तो वहीं ग्रामीण लोगों को शहरी आबो-हवा को समझने का अवसर उपलब्ध कराता है । इस मेले का पर्यावरणीय सरोकार इस बात से भी परिलक्षित होता है कि मेला परिसर में प्लास्टिक का प्रयोग पूर्णतया प्रतिबन्धित है । मेला परिसर में आधुनिक तकनीकी से निर्मित ई-टॉयलेट की व्यवस्था है तो वहीं सी. सी. टी. वी. जैसी आधुनिक तकनीकी से निगरानी का आधुनिक तरीका भी । मेले में किसी भी आपदा से निपटने के लिए तमाम आधुनिक सुविधाएं इसे खास बनाती हैं । सुरक्षा उपकरण हो, अग्निशमन यंत्र हो या फिर मेडिकल की सुविधा, इस मेले को सफल बनाने में मदद करते हैं । मेला परिसर में बाइस्कोप की बातें बचपन की यादें ताजा कर जाती हैं तो वहीं परम्परागत एवं आधुनिक वाद्ययंत्रों से आ रही धुन पैरों को थिरकने पर मजबूर कर देती हैं । ढोल- नगाड़ों की धुनें सहज ही अपने तरफ आकर्षित कर लेती हैं और कब कोई दर्शक उस नृत्य समूह का हिस्सा बन जाता है उसे पता ही नहीं चलता है ।
सरकार की सहभागिता, आम जनमानस की उत्सुकता, देशज कलाकृतियों एवं शिल्पकारों एवं लोक कलाकारों की प्रस्तुति से यह मेला प्रत्येक वर्ष एक नई उचाई को छू लेता है । लोक जनसम्मेलन के इस आयोजन के प्रचार- प्रसार के लिए विभिन्न आधुनिक तकनीकी माध्यमों का सहारा लिया जाता है । मेले की वेबसाइट पर आयोजन से जुड़ी सभी महत्वपूर्ण जानकारियों के अलावा ई-टिकट भी उपलब्ध होता है जिसे आवश्यकतानुसार प्राप्त किया जा सकता है । प्राधिकरण से जुड़ी तमाम सूचनाओं के साथ, वेबसाइट पर उपलब्ध महत्वपूर्ण चित्र देशी एवं विदेशी पर्यटकों को सहज ही आकर्षित करते हैं । पिछले कुछ वर्षों से संचालित हेलीकॉप्टर सेवा मेले को आधुनिक बना रही है जिसके माध्यम से आगन्तुक कुछ शुल्क अदाकार मेला परिसर के ऊपर से दृश्य देखकर अलौकिक आनन्द की अनुभूति कर सकता है । कभी रुढियों को तोड़ता तो कभी नई पद्धतियों को अंगीकार करता, कभी विलुप्त हो रही कलाओं में प्राण भरता तो कभी नई कला के लिए आतुर दिखलाई देता, कभी ग्रामीण भारत की तस्वीर उकेरता तो कभी जीवन के विभिन्न रंग सहेजता, सूरजकुण्ड का यह मेला नए सन्दर्भों में परम्परा का ताना- बाना बुनता दिखलाई देता है ।
Deeply written.
जवाब देंहटाएंVery Impressive
जवाब देंहटाएंBadiya sir ji badiya pura drishya saamne aagya mele ka
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