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मौसम का बदलता मिज़ाज़ : खतरे की घण्टी

पिछले कुछ वर्षों में मौसम ने जिस तरह से करवट बदला है उससे आने वाले खतरे का अंदेशा होने लगा है। बिन मौसम की बारिश की मार हो या दिन प्रतिदिन चिलचिलाती गर्मी का टूटता रिकॉर्ड, बादल फटने की बढ़ती घटनाएं हो या फिर सैकड़ों को काल के गाल में ले जाने वाली लू का प्रकोप, निश्चित तौर पर हमे आगाह कर रही हैं। प्रकृति से हो रहे छेड़छाड़ ने पुरे इको -सिस्टम को बदल दिया है जिससे प्रतिदिन एक नई चुनौती जन्म ले रही है। इस बदलाव का न सिर्फ हमारे जीवनशैली पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है बल्कि हमारी अर्थव्यवस्था भी चरमरा सी गई है।  देश में बारिश की कमी की वजह से जहाँ कई राज्य सूखे का दंश झेल रहे हैं वहीं फसलों के उत्पादन में गिरावट ने महंगाई के लिए आग में घी डालने का काम किया है। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर मौसम का मिज़ाज़ क्यों बदल रहा है और इसके लिए जिम्मेदार कौन है ? इस प्रश्न का उत्तर निश्चित तौर पर प्रकृति के प्रति हमारे संवेदनहीन रवैये की तरफ इशारा करता है। प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर हम विकास की जिस प्रक्रिया को गति देने में लगे हैं वह प्रक्रिया हमें धीरे -धीरे विनाश के तरफ ले जाती दिख ...

किसान

ऐ किसान ! तेरी क्या ख़ूब कहानी है , चेहरे पे उदासी और आँखों में पानी है। भरता पेट संसार का मेहनत से तेरे , खाते तेरी मेहनत का टाटा अम्बानी है। भूखे सोते रातों को बच्चे अक्सर  ही , तेरे घर के चूल्हे पर पकता पानी है। छलते हैं सरकारी वादे और जुमले , सूखा बारिश की तुझे कीमत चुकानी है।