मौसम का बदलता मिज़ाज़ : खतरे की घण्टी
पिछले कुछ वर्षों में मौसम ने जिस तरह से करवट बदला है उससे आने वाले खतरे का अंदेशा होने लगा है। बिन मौसम की बारिश की मार हो या दिन प्रतिदिन चिलचिलाती गर्मी का टूटता रिकॉर्ड, बादल फटने की बढ़ती घटनाएं हो या फिर सैकड़ों को काल के गाल में ले जाने वाली लू का प्रकोप, निश्चित तौर पर हमे आगाह कर रही हैं। प्रकृति से हो रहे छेड़छाड़ ने पुरे इको -सिस्टम को बदल दिया है जिससे प्रतिदिन एक नई चुनौती जन्म ले रही है। इस बदलाव का न सिर्फ हमारे जीवनशैली पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है बल्कि हमारी अर्थव्यवस्था भी चरमरा सी गई है। देश में बारिश की कमी की वजह से जहाँ कई राज्य सूखे का दंश झेल रहे हैं वहीं फसलों के उत्पादन में गिरावट ने महंगाई के लिए आग में घी डालने का काम किया है। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर मौसम का मिज़ाज़ क्यों बदल रहा है और इसके लिए जिम्मेदार कौन है ? इस प्रश्न का उत्तर निश्चित तौर पर प्रकृति के प्रति हमारे संवेदनहीन रवैये की तरफ इशारा करता है। प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर हम विकास की जिस प्रक्रिया को गति देने में लगे हैं वह प्रक्रिया हमें धीरे -धीरे विनाश के तरफ ले जाती दिख रही है और हम कागजी नीतियों के अलावा धरातल से कोसों दूर खड़े हैं। पिघलते ग्लेशियर , धरती के गर्भ में स्थित जल भण्डार में कमी और वनों का सिकुड़ता क्षेत्रफल हमारे लिए बड़ी चुनौती है जिसका समाधान जल्द से जल्द करना होगा वरना वह दिन दूर नहीं जब इस धरती पर जीवन एक कल्पना का रूप ले लेगी। सिर्फ पर्यावरण दिवस मनाने भर से स्थिति नहीं बदलने वाली है। यदि हम चाहते हैं कि प्रकृति हमें माँ का प्यार दे तो हमे भी बेटे का फ़र्ज निभाना होगा। प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सम्मान की भावना ही हमें आने वाले खतरे से बचा सकती है। वेद -पुराण में उल्लेखित उपायों को आत्मसात करना होगा जिससे प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग रुकेगा और निश्चित तौर पर असंतुलन की राह पर अग्रसर मौसम के मिज़ाज़ को बदला जा सकेगा। बारिश के जल का संचयन कर हम धरती की प्यास को बुझाने के साथ ही पौधरोपण कर उसे सजा सवाँर सकते हैं जिससे अनेकों समस्याओं का हल अपने आप हो जायेगा।
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