अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या स्वछन्दता ?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या स्वछन्दता ?
डॉ सुनील कुमार मिश्र
डॉ सुनील कुमार मिश्र
हमारा संविधान प्रत्येक भारतीय नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है साथ ही ८ युक्तियुक्त निर्बन्धन के माध्यम से इसकी स्वतंत्रता की परिधि भी सुनिश्चित करता है। १९ (१)(क) में वर्णित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आम जन के साथ ही मीडियाकर्मियों को भी मिली हुई है और अमेरिका की तरह अलग से प्रेस को कोई अधिकार नहीं मिले हैं। सामाजिक उत्तरदायित्व का सिद्धान्त भारतीय मीडिया को और भी जवाबदेह बनाता है परन्तु विगत कुछ वर्षों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं स्वच्छंदता के बीच की पतली रेखा धुंधली होती नजर आयी है। कुछ दिन पहले एक बड़े अख़बार ने फ़िल्म अभिनेत्री दीपिका पादुकोण की एक ऐसी तस्वीर छापने का अमर्यादित कार्य किया जिसने सामाजिक सरोकार से जुड़े इस पेशे में स्वच्छन्द हो रहे मूल्यों को रेखांकित किया। ऐसा नहीं है की इस तरह की ये पहली घटना थी। व्यापारिक प्रतिस्पर्द्धा एवं कार्पोरेट जगत की बढ़ती हिस्सेदारी ने कई वर्ष पहले ही स्वतंत्रता एवं स्वच्छंदता के बीच की दूरी को मिटाना शुरू कर दिया था। फिल्मों एवं विज्ञापनों से शुरू हुआ ये सफ़र सोशल मीडिया के युग में सारी सीमाएं लाँघ चुका है। अश्लील एवं अमर्यादित भाषा का प्रयोग बढ़ता जा रहा है जिसे समय रहते नहीं रोका गया तो स्वतंत्रता एवं स्वच्छन्दता के बीच फ़र्क करना मुश्किल हो जायेगा।
कुछ ही वर्षों में समाचार चैनलों की बाढ़ सी आ गयी है। अधिकांश चैनल किसी न किसी व्यावसायिक समूह द्वारा संचालित किये जा रहे हैं। ऐसे में समाचार चैनल उत्पाद बनाने वाली कम्पनी का रूप ले चुके हैं जबकि इसे प्राप्त करने वाला उपभोक्ता बन चुका है। समाचार के स्वरुप एवं अंतर्वस्तु पर बाज़ार का दबाव साफ नज़र आता है ऐसे में चैनल बाज़ार की भाषा बोलते नज़र आते हैं। समाचार प्रतिष्ठानों में प्रतिनिधित्व भी काफी बड़ा मुद्दा है। मसलन प्रतिष्ठान किसके द्वारा संचालित किया जा रहा है , निर्णायक शेयर किसके पास है, इत्यादि मुद्दे भी ख़बरों के स्वरुप एवं अन्तर्वस्तु पर व्यापक असर डालते हैं। राजनीतिक पार्टियों द्वारा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से संचालित प्रतिष्ठान भी मीडिया सरोकारों को बदलने का कार्य कर रहे हैं। सम्पादक नामक संस्था का विलुप्त होना एवं विपणन बिभाग की बढ़ती सक्रियता मीडिया को स्वच्छन्दता के अँधेरे कुएं में ढ़केल रही है। ६० के दशक में कई ऐसे सम्पादक हुए जिन्होंने न सिर्फ मालिकान के स्वच्छंद रवैये की ख़िलाफ़त की बल्कि प्रेस की स्वतंत्रता के लिए पूँजीवादी ताक़तों से जमकर लोहा लिया। परन्तु आज स्थिति बिल्कुल उलट है। बड़े-२ पत्रकार मालिकों को खुश करने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ताक पर रखने से गुरेज़ नहीं करते। राजनीतिक पार्टियों के मुखपत्र में अनेकों बार ऐसे लेख छपते हैं जो पत्रकारिता के मूल्यों पर कुठाराघात है। ताजा उदाहरण शिवसेना के मुखपत्र 'सामना' का है जिसमें सम्पादक ने भारत के प्रधानमन्त्री के सन्दर्भ में अशोभनीय एवं अमर्यादित भाषा का प्रयोग किया है। कुछ दिन पहले एक बड़े पत्रकार को स्वच्छन्दता काफी महँगी पड़ी जब वह भूल गए कि वह अमेरिका में हैं भारत में नहीं।
न्यू मीडिया के प्रादुर्भाव ने सूचना के प्रवाह को निरंकुश बना दिया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर रोज़ाना हजारों ऐसे कमेंट देखने को मिलते हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल उद्देश्यों का हनन करते दिखलाई पड़ते हैं। ऐसे संवेदनहीन कमेंट न सिर्फ दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचते हैं बल्कि संविधान में उल्लेखित युक्तियुक्त निर्बन्धनों का भी उल्लंघन करते हैं। ऐसे में कई बार इन साइटों पर सेंशरशिप की तलवार लटक चुकी है हालाँकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर इन साइटों का दुरूपयोग करने वाले हर बार बचने में सफल रहे हैं। पूर्व सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने तो इन साइटों पर कड़े प्रतिबन्ध लगाने की धमकी भी दे डाला था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी एवं तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खिलाफ एक अभद्र पोस्ट से वे खासे नाराज थे और कड़े सेंसरशिप की पुरजोर वकालत की थी।
अब प्रश्न यह उठता है की भारतीय प्रेस परिषद् , केन्द्रीय फिल्म प्रमारण बोर्ड , भारतीय विज्ञापन स्टैण्डर्ड परिषद एवं राष्ट्रीय प्रसारक संघ जैसी संस्थाओं की मौजूदगी में संचार के आधुनिक माध्यम दिन प्रतिदिन स्वच्छन्दता की ओर क्यों बढ़ रहे हैं ?भारतीय प्रेस परिषद् जहाँ असहाय एवं दंतविहीन चीता नजर आता है वहीं इसकी उदासीनता भी इसके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। मर्यादा की हदों को पार करने वाले संगठनों को चेतावनी देकर छोड़ देना या खेद प्रकट करने को कहना इसकी जंग लगी धार को दर्शाता है। कहा भी गया है 'क्षमा शोभते उस भुजंग को जिसके पास गरल हो.।' समाचार संगठनों के अड़ियल रवैये के सामने अक्सर प्रेस परिषद झुकता नजर आया है जिससे इनके हौसले और भी बुलंद नजर आते हैं। रही बात केंद्रीय फिल्म प्रमारण बोर्ड की तो उसके धार को नोटों की जंग लग चुकी है। अब उसकी कैंची फिल्म के अमर्यादित हिस्सों पर नहीं चलती बल्कि निर्माता के ज़ेब पर चलती है। कुछ दिन पहले इस संस्था के सी ई ओ की हुई गिरफ़्तारी से कई आश्चर्यजनक तथ्य सामने आये। पैसे लेकर बिना कांट -छाँट के ही फिल्म को प्रदर्शित करने की अनुमति देना इस संस्था को कठघरे में खड़ा करता है। भारतीय विज्ञापन स्टैण्डर्ड परिषद तो बहुत पहले ही बाजार के आगे घुटने टेक चुका है। विज्ञापनों में जिस प्रकार से सेक्स का भोंडा प्रदर्शन जारी है उससे निश्चित ही इस संस्था की गरिमा कम हुई है। सीमेंट से लेकर शेविंग क्रीम तक के विज्ञापन में जिस प्रकार से महिला अंगों को दिखाया जाता है उससे इस संस्था के उद्देश्यों पर पानी फिरता नजर आता है। प्रतिस्पर्धात्मक अंधी दौड़ में विज्ञापनकर्ता व विज्ञापन समितियों को भ्रामक , असत्य एवं अश्लील सामग्रियों के प्रस्तुतीकरण से रोकने वाली यह संस्था बाजार के दबाव के आगे हाँफती नजर आती है। राष्ट्रीय प्रसारक संघ पर उन लोगों का कब्ज़ा है जो बड़े प्रतिष्ठानों में अपने हित तलाशते दिखलाई पड़ते हैं। बिल्ली को ही दूध की रखवाली सौंपकर यह कहना की वह दूध में मुँह नहीं मारेगी , कल्पना ही हो सकता है। ऐसे में इस संस्था से प्रेस के मूल्यों की रक्षा करने की उम्मीद करना बेमानी है।
इस प्रकार हम देखते हैं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं स्वच्छंदता का दायरा काफी तेजी से सिकुड़ रहा है और अनेक नियामक संस्थाएं मूकदर्शक बन सिर्फ तमाशा देख रही हैं। स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी प्रस्तुत करने वाले स्वच्छन्द होकर अंगड़ाई ले रहे हैं। तेजी से बदल रहे सामाजिक परिवेश एवं बाज़ार के थपेड़े के आगे ये संस्थाएं उसी तरह से असहाय नजर आती हैं जैसे बगीचे की रखवाली करने वाला लंगड़ा व्यक्ति फल तोड़ रहे बालकों की टोली को दौड़कर पकड़ने व दण्डित करने की बात करता है जबकि बच्चे जानते हैं की वह दौड़ नहीं सकता और आसानी से फल तोड़ लेते हैं।
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