सूरजकुण्ड मेला : परम्परागत माध्यम का आधुनिक रूप

 देश के प्रमुख लक्खी मेलों में शुमार ‘सूरजकुण्ड अन्तर्राष्ट्रीय क्राफ्ट मेला’ एक आधुनिक लोक सम्मेलन है । दिल्ली से सटे हरियाणा के शहर फरीदाबाद को सूरजकुण्ड मेले के आयोजन के लिए भी विशेषतौर पर जाना जाता है । इस मेले का आयोजन फ़रवरी महीने के पहले पक्ष में किया जाता है । दो हफ्ते तक चलने वाले इस मेले में न सिर्फ परम्परागत कलाओं की जीवन्त झाँकी देखने को मिलती है बल्कि कई मायनों में इस मेले से आधुनिकता की भीनी- भीनी खुश्बू भी आती है, ऐसा लगता है जैसे मेले में गाँव और शहर दोनों के रंग मिलाकर किसी ने चित्रकारी की हो । वैसे तो सूरजकुण्ड गाँव है परन्तु मेले के दौरान यह छोटी सी जगह शहरी परिवेश के आगन्तुकों से पटा पड़ा होता है । मेले का नैसर्गिक स्वरूप हो या फिर आधुनिकता का तड़का, ४० एकड़ में फैले मेला परिसर में दोनों का बोध होता है । एक तरफ जहाँ यह मेला ग्रामीण कलाकारों को मंच प्रदान करता है वहीं दूसरी तरफ शहरी लोगों के रूप में आधुनिकता से ओत- प्रोत दर्शक भी । प्रतिवर्ष लाखों आगन्तुकों को अपनी तरफ खींचकर ले आने वाले इस मेले में विदेशी सैलानियों की संख्या भी हजारों में होती है ।

सार्क देशों के अलावा अन्य पड़ोसी देशों की सहभागिता इस मेले को न सिर्फ अन्तर्राष्ट्रीय दर्जा प्रदान करती है अपितु यह विश्व का सबसे बड़ा क्राफ्ट मेले का दर्जा भी हासिल कर चुका है । सूरजकुण्ड मेला प्राधिकरण हरियाणा एवं केंद्र सरकार के कुछ प्रमुख मन्त्रालयों के साथ मिलकर इसके सफल आयोजन का ताना- बाना बुनता है । व्यापारिक दृष्टिकोण से भी यह मेला काफी सफल माना जाता है । प्रतिवर्ष करोंड़ों का व्यापार देने वाला यह मेला हजारों लोगों को रोजगार भी उपलब्ध कराता है । इस मेले में जहाँ सामाजिक एवं संस्कृति का अद्वितीय सम्मिलन देखने को मिलता है वहीं व्यापारिक दृष्टिकोण भी परिलक्षित होता है । यह मेला आधुनिक परिवेश में भी किसी परम्परागत मेले के सभी अवयवों को स्पष्ट रूप से दिखाता है, जैसा कि कहा गया है ‘जब किसी स्थान पर बहुत से लोग किसी धार्मिक, सामाजिक एवं व्यापारिक या अन्य कारणों से एकत्र होते हैं तो उसे मेला कहते हैं’ । इस मेले में इन तीनों की ही झलक देखने को मिल जाती है । हालाँकि कुछ लोगों का मत है कि इस आयोजन का प्रयोजन धार्मिक नहीं है परन्तु इस मेले में प्रवेश द्वार पार करते ही कुछ प्राचीन मन्दिरों के नमूनों को मूर्तरूप देखने को मिलता है जो एक धार्मिक वातावरण तैयार करता है । उदहारण के तौर पर हम २०१८ के आयोजन के दौरान काशी के मन्दिरों को ले सकते हैं । इस मेले का स्वरुप कुम्भ, सिंहस्थ, पुष्कर, सोनपुर, ददरी मेलों से बिल्कुल अलग है । अन्य मेलों में जहाँ पुराना स्वरुप बचाने की कोशिश देखने को मिलती है वहीं यह मेला आधुनिक बदलाव को हर साल अंगीकार करता हुआ देखा जा सकता है । देखा जाय तो लोक संस्कृति की पहचान कराने वाले इन मेलों का उद्देश्य मुख्य रूप से लोगों को एकत्र कर उन्हें सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ना था परन्तु इनके आयोजन के पीछे एक अर्थशास्त्र भी छिपा दिखलाई पड़ता है जिसमें आयोजन समिति के व्यापारिक हित को महसुस किया जा सकता है । सूरजकुण्ड मेला प्राधिकरण इस आयोजन से प्रत्येक वर्ष करोंड़ों रूपये जुटाता है ।

सूरजकुण्ड मेले का आयोजन पहली बार १९८७ में किया गया था । जिसका मूल उद्देश्य लोक कलाकारों एवं शिल्पकारों को एक मंच प्रदान करना था । इस छोटी सी जगह पर कभी एक कुण्ड हुआ करता था जहाँ अरावली पर्वत से बह रहे पानी का संचयन किया जाता था । जैविक वैविध्य से परिपूर्ण इस क्षेत्र का धार्मिक महत्व भी है । कुण्ड के समीप मन्दिर इसके धार्मिक महत्व को दर्शाता है । कुण्ड के पश्चिमी तट पर स्थित यह मन्दिर वर्षों से आस-पास के लोगों के लिए आस्था का केन्द्र रहा है । कहा जाता है कि इस कुण्ड का निर्माण तोमर राजवंश के राजा सूरजपाल ने अपने आराध्य सूर्यदेव के नाम पर कराया था । हालाँकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि सूरजपाल के नाम पर इस कुण्ड का नाम सूरजकुण्ड पड़ा । दसवीं शताब्दी में निर्मित कराये गये इस कुण्ड के पीछे भले ही राजा का धार्मिक उद्देश्य रहा हो परन्तु कालान्तर में यह पर्यावरणीय दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हो गया । 

एक हजार साल से भी अधिक पुराने इस कुण्ड का जितना पारम्परिक महत्व है, उतना ही वर्तमान समय में आयोजित मेले के कारण आधुनिक महत्व । भले ही जल संचयन के लिए बनाया गया यह कुण्ड अपने मूल स्वरुप को खो चुका है और लोगों की प्यास बुझाने का कार्य नहीं करता परन्तु मेले के आयोजन के दौरान आधुनिक रंगों से सजी यह जगह देश- विदेश के लाखों लोगों को सहज ही अपनी तरफ खींच लाती है । इस जगह के आस- पास कई ऐतिहासिक धरोहर मौजूद हैं जो उस दौर की सामाजिक एवं सांस्कृतिक संरचनाओं पर प्रकाश डालती हैं । एक ऐतिहासिक स्थल पर आयोजित किये जाने वाले इस मेले का आयोजन १९८७ से अब तक कुल ३४ बार किया जा चुका है । २००३ में किसी कारणवश इस मेले का आयोजन नहीं किया जा सका था । एक सुनहरे इतिहास को अपने आँचल में समेटे हुए इस मेले को विभिन्न ऐतिहासिक परम्पराओं को विलुप्त होने से बचाने के लिए विशेष तौर से जाना जाता है ।

इस मेले में शहर एवं गाँव दोनों के विविध रंगों को देखा जा सकता है । इस मेले में जहाँ ग्रामीण पृष्ठभूमि की सामाजिक एवं सांस्कृतिक संरचना का ताना - बाना देखने को मिलता है वहीं शहरी वातावरण को भी महसुस किया जा सकता है । मेला प्राधिकरण यह सुनिश्चित करता है कि शहरी अथवा विदेशी पर्यटक जब मेला परिसर में प्रवेश करे तो वह ग्रामीण भारत की एक झलक जरुर देखे । इसके लिए मेला परिसर को ग्रामीण परिवेश के अनुसार ढालने का प्रयास किया जाता है । इस परिसर में गाँव की झोपड़ी होती है तो ग्रामीण घरों की प्रमुख जरुरत खाट भी, प्रकाश करने के लिए लालटेन होती है तो पानी भरने के लिए कुआँ की प्रतिकृति भी । ग्रामीण परिवेश की जान किसान होता है तो उसकी जान के रूप में हल और बैलों की प्रतिकृति भी । चूल्हे पर रोटी बनाती भारतीय नारी का मिट्टी स्वरुप होता है तो वहीं ममता की देवी माँ का मिट्टी स्वरुप भी । ऐसी न जाने कितनी अनगिनत चीजों से मेला परिसर को ग्रामीण परिवेश में ढालने की कोशिश की जाती है जिससे शहर से आया व्यक्ति गाँव की सामाजिक एवं सांस्कृतिक संरचना को जान सके ।

आधुनिक चकाचौंध में सामाजिक एवं सांस्कृतिक जकड़न का शिकार शहरी व्यक्ति जब मेला परिसर में आता है तो निश्चित तौर पर कुछ न कुछ सन्देश लेकर ही जाता है । गांवों से कट चुके लोगों को जहाँ बचपन याद आता है वहीं गाँव को न जानने वाले बच्चे के लिए यह परिवेश फ़िल्मी गांवों से अलग दिखता है । यह मेला न सिर्फ शहर को गाँव से जोड़ता है बल्कि शहर में रह रहे लोगों को गाँव का एहसास भी कराता है । यही कारण है कि एक बड़ी संख्या में शहरी लोग इस मेले में आते हैं और हर साल इस संख्या में बढ़ोत्तरी देखी जा सकती है । गगनचुम्बी इमारतों में रहने वाला शहरी जो अपनी नींव को विस्मृत कर चुका है, जब मेला प्रांगण में कदम रखता है तो धुल के कण उससे ऐसे लिपट जाते हैं जैसे उनसे बिछड़ चुका कोई हिस्सा वापस लौट आया हो ।

एक तरफ समाज में जहाँ सामाजिक एवं सांस्कृतिक जकड़ने तेजी से पाँव पसार रही हैं और देश में साम्प्रदायिक सौहार्द सिकुड़ रहा है, यह मेला सामाजिक एवं सांस्कृतिक मेल जोल को बढ़ाने का कार्य भी करता है । मेले में बनारस के बुनकर, लखनऊ के चिकन कारीगर, कोल्हापुर के चप्पल व्यवसायी, कश्मीर के शाल व्यापारी, मधुबनी पेन्टिंग की कला में महारथ शिल्पकार सहित कांजीवरम एवं देश के विभिन्न हिस्सों से आये लघु एवं कुटीर उद्योग से जुड़े हजारों लोग भिन्न-भिन्न संस्कृतियों को माला के एक धागे में पिरोने का कार्य करते हैं । इस मेले में गाँव का अलमस्त, फक्कड़ और अपनी धुन में मस्त गाँव का भोला-भाला कोई लोक कलाकार है तो अपनी प्रस्तुति से अपने देश की संस्कृति को दिखा देने वाला विदेशी कलाकार भी । कपड़े पर अपनी कढाई कौशल को प्रस्तुत करने वाला बुनकर है तो वहीं विभिन्न जगहों पर इस्तेमाल किये जाने वाले गहनों से उस मिट्टी की झलक दिखलाने वाला शिल्पी भी ।

वैसे तो मेले में विभिन्न राज्यों से आये कलाकार एवं देशज तकनीकी से कढाई-बुनाई में संलग्न सैकड़ों लोग हिस्सा लेते हैं परन्तु जो राज्य ‘थीम राज्य’ के रूप में हिस्सा लेता है, उसे आयोजन समिति विशेष महत्व देती है । उस राज्य को मेला प्राधिकरण प्रवेश द्वार को राज्य के किसी प्रमुख संरचना के अनुसार बनाने की छुट देता है । इसके अतिरिक्त मेला परिसर में विभिन्न प्रवेश द्वारों की संरचना भी उस राज्य की पहचान एवं विरासत को दर्शाती हैं । ‘थीम राज्य’ की मेले में सहभागिता भी अन्य राज्यों की तुलना में अधिक होती है । चाहे कलाकारों की प्रस्तुति हो या फिर लघु एवं कुटीर उद्योग से जुड़े लोगों द्वारा लगाये गये स्टाल, उस राज्य को ज्यादा महत्व दिया जाता है । प्रत्येक वर्ष कम से कम एक राज्य को ‘थीम राज्य’ के रूप में चुना जाता है जो उस मेले को अपनी परम्परागत विरासत के अनुसार स्वरुप देता है ।

जब १९८७ में इस मेले का आयोजन पहली बार हुआ तो ‘थीम राज्य’ के रूप में कोई राज्य हिस्सा नहीं लिया था परन्तु जब अगले साल मेले का आयोजन दूसरी बार किया गया तो सर्वप्रथम राजस्थान को ‘थीम राज्य’ के रूप में सहभागिता करने का अवसर मिला । तबसे लेकर आज तक कोई न कोई राज्य ‘थीम राज्य’ के रूप में हिस्सा ले रहा है । अब तक सभी राज्यों को यह गौरव हासिल हो चुका है । कुछ राज्य तो एक से अधिक बार यह उपलब्धि अपने नाम कर चुके हैं । २०१८ में संपन्न हुए ३२वें आयोजन में उत्तर प्रदेश ‘थीम राज्य’ के रूप में हिस्सा लिया था । इस दौरान काशी के घाटों एवं मन्दिरों को मेला परिसर में विशेष रूप से दर्शाया गया था । मेले में ‘थीम राज्य’ की कला, संस्कृति, रहन-सहन, पहनावा एवं खान-पान की झलक विशेष तौर पर देखने को मिलती है । पिछले साल उज्बेकिस्तान ने सहयोगी राष्ट्र के रूप में हिस्सा लिया था जबकि हिमाचल प्रदेश को ‘थीम राज्य’ के रूप में हिस्सेदारी का अवसर मिला था |

इसके अलावा कुछ वर्षों से सहयोगी राष्ट्र के रूप में भी कोई न कोई देश हिस्सा लेता है जिसकी सामाजिक एवं सांस्कृतिक झलक मेला में आये लोगों को देखने को मिलती है । सहयोगी देशों की सहभागिता अन्य देशों की तुलना में ज्यादा होती है या यूँ कह लें की उस देश के कलाकारों को ज्यादा महत्व मिलता है । केन्द्र सरकार का विदेश, पर्यटन एवं वाणिज्य एवं वस्त्र मन्त्रालय इस मेले के दौरान सहयोगी देश के कलाकारों तथा लघु एवं कुटीर उद्योग से जुड़े लोगों को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराता है । भले ही हरियाणा सरकार इस आयोजन को मूर्तरूप देती है परन्तु केंद्र सरकार सुरक्षा-सहित विविध पहलुओं पर अग्रणी भूमिका में नजर आती है ।  

किसी भी मेला की जान उसमें मिल रहे व्यंजन ही होते हैं जिनकी सदियों से एक विशेष परम्परा रही है । सूरजकुण्ड मेले ने इस परम्परा को जीवित रखा है । मेले में की गई खान-पान की व्यवस्था भी आधुनिकता संग परम्परागत व्यंजन शैली की झलक प्रस्तुत करती है । यहाँ बने ‘फूडकोर्ट’ में न सिर्फ शहर के आधुनिक व्यंजन मिलते हैं बल्कि गाँव की परम्परागत पकवान की खुश्बू भी आसानी से महसुस की जा सकती है । भले ही आधुनिक खान-पान की शैली की वजह से मेले में पिज्जा-बर्गर संस्कृति का अस्तित्व देखने को मिलता है परन्तु परम्परागत पकवानों की दुकानों पर उमड़ी भीड़ देखकर इस बात का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि शहरी आगन्तुकों को भी ग्रामीण पकवान खूब भाते हैं । गोहना की जलेबी हो या राजस्थान का दाल-बाटी चूरमा, दिल्ली के छोले भठूरे हों या फिर हरियाणा की मक्के की रोटी संग साग या फिर पंजाब की लस्सी, आगन्तुक इनको बिना चखे खुद को रोक नहीं पाते हैं । जब कोई बिक्रेता चनाजोर गरम ले लो  की आवाज लगाता है तो बहुत से लोग उसका स्वाद जानने के लिए ही खरीद लेते हैं ।

परिसर में आइसक्रीम के ठेले देखकर बच्चों की जिद्द के आगे माँ- बाप बेबस दिखलाई पड़ते हैं तो वहीं खुद का गला तर करने के लिए शिकंजी की दुकान तक खींचे चले जाते हैं । वैसे तो मेला परिसर में तरह-तरह के पकवानों के स्टाल लगे होते हैं परन्तु ‘थीम राज्य’ के पकवान विशेष होते हैं । सहभागी राज्य के प्रमुख पकवान मेला भ्रमण को आये आगन्तुकों को विशेष तौर पर पसन्द आते हैं । हवेली नामक दुकान भी पिछले कुछ वर्षों से विशेष प्रकार के पकवान लोगों को उपलब्ध करा रही है । मेला प्राधिकरण इस बात का भी विशेष ध्यान रखता है कि मेले में आये लोगों को सहभागी राज्य के विशेष पकवान का स्वाद जरुर चखने को मिले । उदहारण के तौर पर बिहार राज्य की थीम राज्य की सहभागिता के दौरान लिट्टी चोखा की व्यवस्था या फिर राजस्थान की सहभागिता के दौरान दाल बाटी और चूरमा की विशेष रूप से व्यवस्था करना । मेले परिसर में आधुनिक व्यंजन जैसे- पाव भाजी, मैगी, पिज्जा, बर्गर इत्यादि  की उपलब्धता भी पिछले कुछ वर्षों में बढ़ी हैं ।     

सूरजकुण्ड के इस मेले को लोक कलाओं के प्रोत्साहन के लिए भी विशेष तौर पर जाना जाता है । देश विदेश की विभिन्न कलाओं को यह अंतरराष्ट्रीय मंच हमेशा ही प्रोत्साहित करता है । मेला प्राधिकरण विलुप्त हो रही लोक कलाओं को संरक्षण प्रदान करने के साथ ही ग्रामीण एवं जनजातीय समूह के कलाकारों को अपनी कला दिखाने का अवसर प्रदान करता है । मेला परिसर के बीचों-बीच ‘चौपाल’ नामक रंगशाला अनेकों लोक कलाकारों की विहंगम प्रस्तुति की गवाह बनती है । देश- विदेश के विभिन्न कोने से आये कलाकार अपने प्रस्तुति से मेले में आये लोगों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं । स्थानीय, क्षेत्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय लोक कलाकार जब अपनी कला के जरिये लोगों को सामाजिक एवं सांस्कृतिक सन्देश देता है तो तालियों की गडगडाहट से मेला परिसर गूंज उठता है । झारखण्ड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तराखण्ड, हिमाचल, तेलंगाना सहित देश के अन्य आंचलिक हिस्सों से आये कलाकार जब इस मंच पर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं तो मेला प्रेमी उनकी प्रस्तुतियों में खो से जाते हैं । मेले के दौरान यह रंगशाला विदेश से आये लोक कलाकारों को भी समभाव से प्रोत्साहित करती नजर आती है । विदेशी नृत्य हो या गीत-संगीत, कोई परम्परागत वाद्य यंत्र हो या फिर नाट्य प्रस्तुति, विदेश से आया लोक कलाकार भी सम्मान पाता है ।   

सार्क देशों अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, श्रीलंका एवं भारत की अनेक लोक कलाएं इस मंच को जीवन्त बना देती हैं । इसके अलावा कुछ पड़ोसी देश भी इस मंच को अपना कलाकार उपलब्ध कराते हैं जिनकी प्रस्तुतियों से इस रंगशाला के आस- पास का वातावरण अलौकिक हो उठता है । धोबी नृत्य जैसी परम्परागत कला जो लगभग मृतप्राय है, को जब इस मंच से सम्बल मिलता है तो निश्चित तौर पर कला और कलाकार दोनों को ही नया जीवन मिल जाता है । इससे न सिर्फ नये लोगों का लोक कलाओं के प्रति रुझान विकसित होता है बल्कि इन कलाओं से विमुख हो रहे लोक कलाकारों को भी लोक कलाओं से जोड़े रखा जा सकता है । रंगशाला में लोक कलाकारों द्वारा प्रस्तुत लोक नृत्य एवं लोक गायन मेला प्रेमियों को खूब पसंद आते हैं । विदेशी सैलानी भी कौतुहलवश इन प्रस्तुतियों को देखते हैं और बाद में इन लोक कलाकारों की प्रशंसा से खुद को रोक नहीं पाते । विदेशी पर्यटकों की प्रत्येक वर्ष बढ़ती हुई संख्या हो या अन्य देशों से आये लोक कलाकारों का उत्साह, यह मेला अपने उद्देश्य में सफल होता दिखलाई पड़ता है । देश- विदेश की मीडिया में कवरेज पाकर अनेक लोक कलाकारों के सपनों को मानों पंख मिल जाते हैं । मीडिया द्वारा प्रशंसा पाकर इन लोक कलकारों में नई जान सी आ जाती है । दिल्ली से सटे होने के नाते राष्ट्रीय मीडिया में सूरजकुण्ड मेले की झलकियाँ खूब देखने को मिलती हैं जिनमें लोक कलाओं एवं कलाकारों की प्रस्तुतियों को प्रमुखता से दिखाया जाता है ।

भौगोलिक, व्यापारिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से महत्व रखने वाले इस मेले का प्रत्येक वर्ष न सिर्फ मेला प्राधिकरण को इन्तजार रहता है बल्कि लघु एवं कुटीर उद्योग से जुड़े हजारों लोगों के साथ लोक कलाकारों एवं मेला प्रेमियों को भी इस मेले का बेसब्री से इन्तजार रहता है । आधुनिकता एवं परम्परागत दोनों पहलुओं को समेटे हुए यह मेला शहरवासियों को ग्रामीण परिवेश की झलक दिखलाता है, तो वहीं ग्रामीण लोगों को शहरी आबो-हवा को समझने का अवसर उपलब्ध कराता है । इस मेले का पर्यावरणीय सरोकार इस बात से भी परिलक्षित होता है कि मेला परिसर में प्लास्टिक का प्रयोग पूर्णतया प्रतिबन्धित है । मेला परिसर में आधुनिक तकनीकी से निर्मित ई-टॉयलेट की व्यवस्था है तो वहीं सी. सी. टी. वी. जैसी आधुनिक तकनीकी से निगरानी का आधुनिक तरीका भी । मेले में किसी भी आपदा से निपटने के लिए तमाम आधुनिक सुविधाएं इसे खास बनाती हैं । सुरक्षा उपकरण हो, अग्निशमन यंत्र हो या फिर मेडिकल की सुविधा, इस मेले को सफल बनाने में मदद करते हैं । पारम्परिक झूलों की व्यवस्था है तो वहीं आधुनिक बड़े झूले भी । मेला परिसर में बाइस्कोप की बातें बचपन की यादें ताजा कर जाती हैं तो वहीं परम्परागत एवं आधुनिक वाद्ययंत्रों से आ रही धुन पैरों को थिरकने पर मजबूर कर देती हैं । ढोल- नगाड़ों की धुनें सहज ही अपने तरफ आकर्षित कर लेती हैं और कब कोई दर्शक उस नृत्य समूह का हिस्सा बन जाता है उसे पता ही नहीं चलता है ।

सरकार की सहभागिता, आम जनमानस की उत्सुकता, देशज कलाकृतियों एवं शिल्पकारों एवं लोक कलाकारों की प्रस्तुति से यह मेला प्रत्येक वर्ष एक नई उचाई को छू लेता है । लोक जनसम्मेलन के इस आयोजन के प्रचार- प्रसार के लिए विभिन्न आधुनिक तकनीकी माध्यमों का सहारा लिया जाता है । मेले की वेबसाइट पर आयोजन से जुड़ी सभी महत्वपूर्ण जानकारियों के अलावा ई-टिकट भी उपलब्ध होता है जिसे आवश्यकतानुसार प्राप्त किया जा सकता है । प्राधिकरण से जुड़ी तमाम सूचनाओं के साथ, वेबसाइट पर उपलब्ध महत्वपूर्ण चित्र देशी एवं विदेशी पर्यटकों को सहज ही आकर्षित करते हैं । पिछले कुछ वर्षों से संचालित हेलीकॉप्टर सेवा मेले को आधुनिक बना रही है जिसके माध्यम से आगन्तुक कुछ शुल्क अदाकार मेला परिसर के ऊपर से दृश्य देखकर अलौकिक आनन्द की अनुभूति कर सकता है । कभी रुढियों को तोड़ता तो कभी नई पद्धतियों को अंगीकार करता, कभी विलुप्त हो रही कलाओं में प्राण भरता तो कभी नई कला के लिए आतुर दिखलाई देता, कभी ग्रामीण भारत की तस्वीर उकेरता तो कभी जीवन के विभिन्न रंग सहेजता, सूरजकुण्ड का यह मेला नए सन्दर्भों में परम्परा का ताना- बाना बुनता दिखलाई देता है ।

 

 

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