जनहित में त्याग ( व्यंग्य )


जनहित में त्याग करना कोई माननीयों से सीखे | मजाल है कि जनहित के मामले में इनसे कोई अनदेखी हो जाय | जनता की सेवा के लिए दिन-रात एक कर देने वाले माननीय जनहित को ध्यान में रखकर अपनी कुर्सी का त्याग एक मिनट में कर देते हैं, बशर्ते दूसरी पार्टी में जन-कल्याण का रास्ता खुला हो | जनता की सेवा को सर्वोपरि मानने वाले महोदय क्या कुछ नहीं करते हैं, राजनीति जैसे कठिन पेशे में अपने बेटे-बेटी, भाई-भतीजा यहाँ तक कि दूर के रिश्तेदार को भी लेकर आते हैं जिससे आम जनता को किसी मुश्किल का सामना न करना पड़े, साथ ही अवसर मिलने पर वे अपने पूरे कुनबे को त्याग के लिए प्रेरित कर सकें | आखिर जनहित का मामला जो है | जनता के लिए उनका कुछ कर्तव्य है | माननीय जैसा त्यागी तो दधिची जी भी नहीं थे | उन्होंने तो सिर्फ अपनी हड्डियों का दान किया था जबकि माननीय उस कुर्सी का परित्याग कर देते हैं जिसमें उनकी आत्मा निवास करती है | ऋषि दधिची ने तो केवल अपनी हड्डियों का त्याग किया था, माननीय तो पूरे परिवार, रिश्तेदार, एवं समर्थकों के साथ त्याग करने को आतुर दिखते हैं | कुछ माननीयों के लिए यह त्याग पंचवर्षीय योजना की तरह होता है तो वहीं कुछ माननीय अंतरात्मा की आवाज सुनकर ऐसे कठिन त्याग कर देते हैं | त्याग की पंचवर्षीय योजना के नायक माननीयों की पूरी फ़ौज ही भारत में रहती है और रहे भी क्यों नहीं, कर्ण और दधिची की पावन धरती पर जन्म लेने का असर तो पड़ेगा ही | भला हो राजनीतिक दलों का जो कभी भी माननीयों को निराश नहीं करता है और माननीय एक कुर्सी का त्याग कर झट से दूसरी कुर्सी पर बैठ जाते हैं | गीता के सार को अक्षरशः पालन करने वाले माननीय कुर्सी त्याग कर दूसरी कुर्सी पर जा बैठते हैं | आखिर भगवान के सन्देश को माननीय झूठा कैसे होने देते ? भगवान ने ही तो कहा है कि एक चोले को त्यागकर दूसरे चोले को अपना लेना ही जीवन चक्र है, अब माननीय कुर्सी चक्र को चलते रहने के लिए एक कुर्सी का त्याग कर दूसरी कुर्सी को अपना लेते हैं तो इसमें किसी को कष्ट नहीं होना चाहिए | जनहित के मुद्दों की उपेक्षा ऐसे महापुरुषों से बर्दाश्त नहीं होती है, बशर्ते सामने चुनाव हो एवं किसी न किसी पार्टी को ऐसे त्यागी पुरुष की आवश्यकता हो | ऐसे महापुरुषों की अंतर्रात्मा पाँच साल में एक बार अवश्य पुकारती है और उन्हें अपने समाज के दबले-कुचले और उपेक्षित लोगों की आवाज सुनाई देती है | ये अलग बात है कि यह आवाज समय सापेक्ष अत्यन्त धीमी हो जाती है एवं अगले चुनाव से ठीक पहले इसकी आवाज पुनः सुनाई देने लगती है |

हमारे यहाँ कुछ माननीयों में त्याग की भावना मौसम सापेक्ष विकसित होती है | ऐसे मौसम विज्ञानी माननीय मौसम विशेष का आँकलन करके ही कुर्सी का त्याग करते हैं | ऐसे महाज्ञानी पुरुष सबसे बड़े त्यागी कहे जाते हैं एवं भारी से भारी त्याग करने के बाद भी सत्तापक्ष की कुर्सी हथिया ही लेते हैं | हमारे देश में त्यागी पुरुष को हमेशा से ही श्रद्धा भाव से देखने की परम्परा रही है, ऐसे में किसी एक पार्टी के माननीय ज्योंही जनहित में त्याग करते हैं, दूसरी पार्टी ऐसे महान त्यागी को पूरे सम्मान के साथ पार्टी में तुरन्त ही जगह दे देती है और त्यागी पुरुष को मनचाही जगह मिल जाती है | ऐसे महापुरुष जीवन में कुर्सी का त्याग बारम्बार करते हैं और त्याग के बाद किसी और जगह विराजमान हो जाते हैं | त्याग के प्रतिमूर्ति माननीयों द्वारा त्याग के लिए चुना गया समय सबसे महत्वपूर्ण होता है जो संभवतः पाँच वर्ष में एक बार ही आता है | चुनाव के ठीक पहले कुर्सी का त्याग करने वाले माननीयों को मनचाहा वरदान मिलता है जबकि चुनाव से २-३ साल पहले किया गया त्याग दूसरी पार्टी की अनुकम्पा पर निर्भर करता है | अकेले त्याग करने का फल सामूहिक त्याग से कम मिलता है, ऐसे में माननीय की कोशिश रहती है कि जनहित को ध्यान में रखकर एक बड़े समूह के साथ त्याग किया जाये | जनता भी ऐसे त्यागी पुरुष को सिर पर बैठाती है, और बैठाये क्यों नहीं ? आखिर उन्हीं के लिए तो माननीय ने कलयुग का सबसे बड़ा त्याग किया होता है | अब कलयुग में कुर्सी से बड़ा त्याग क्या हो सकता है ? और जनहित में किये गये कुर्सी के त्याग को तो तीनों लोकों में सबसे बड़े त्याग की संज्ञा दी जा सकती है | माननीय का त्याग जनता से देखा नहीं जाता और जनता ऐसे महापुरुषों के कुर्सी का जुगाड़ कर ही देती है | अब जनता भी तो ऐसे त्यागी पुरुषों को कष्ट देकर पाप का भागी नहीं बन सकती है | भला हो चुनाव का, जो पाँच साल में आ ही जाता है अन्यथा भारत की यह भूमि ऐसे त्यागी पुरुषों का ऋण कैसे उतारती ?

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