अंगूर खट्टे हैं
कल मेरे एक छात्र ने मुझसे पूछा कि अंगूर का
स्वाद कैसा होता है ? मुझे उसका प्रश्न कुछ अटपटा लगा परन्तु बात एक होनहार छात्र
की थी अतः उससे बिना सिर पैर के प्रश्न की उम्मीद भी नहीं थी । मै आश्वस्त था कि यह होनहार
छात्र जरुर किसी गम्भीर प्रश्न को हल करना चाहता होगा तभी
तो ऐसे जटील प्रश्न से मेरी परीक्षा ले रहा । वैसे तो मुझे सटीक उत्तर नहीं मालूम
था परन्तु अध्यापक होने के नाते उत्तर देना भी आवश्यक था । ऐसे में मैंने भी वही
किया जो अधिसंख्य अध्यापक करते हैं । प्रश्न को छात्रों के पाले में डाल दिया ।
कुछ देर तक सन्नाटा छाया रहा । कुछ छात्र डर के मारे कुछ नहीं बोल रहे थे तो कुछ
को शायद प्रश्न समझ में नहीं आया था । कुछ देर के सन्नाटे के बाद दीपक नाम के एक
छात्र ने उत्तर दिया, सर अंगूर तो खट्टे भी होते हैं और मीठे भी । बचपन में सुना
था कि अंगूर मिल जाएँ तो खट्टे और नहीं मिले तो मीठे होते हैं । कुछ अंगूर हमेशा
खट्टे होते हैं और कुछ हमेशा मीठे, वहीं कुछ मौसमानुकूल अपना स्वाद बदल लेते हैं ।
कुछ अंगूर का एक विशेष मौसम होता है तो वहीं कुछ अंगूरों की प्रवृत्ति सरकारी बैंक
के कर्मचारी की भांति होती है जिनका मुँह हमेशा खट्टा ही रहता है ।
छात्र का उत्तर मेरे बहुत
काम आया । अनजाने में ही सही, उसने मुझे प्रश्न के सही उत्तर के काफी करीब ला दिया
था । अब मुझे अंगूर खट्टे होने के रहस्य का पता चल चुका था और मैं इस रहस्य से
पर्दा उठाने को तैयार था । मुझे आम आदमी पार्टी के प्रमुख सदस्य रहे आशुतोष की बात
याद आ गयी थी । कैसे उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता नहीं मिलने पर अचानक से अपनी
पार्टी के नेताओं को खट्टे अंगूर की श्रेणी में रख दिया । आशुतोष ने अपने ही
गुच्छे के अंगूरों को खट्टा बताने के लिए बकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके हर एक
अंगूर को खट्टा बता दिया । अपने परिवार के मुखिया अरविन्द केजरीवाल को तो उन्होंने
सबसे खट्टे अंगूर के श्रेणी में डाल दिया । उन्होंने आरोप लगाते हुए दिल्ली के
मुख्यमन्त्री जी को न सिर्फ खट्टे अंगूरों के गुच्छों का सरदार बताया बल्कि यह भी
कहा कि अरविन्द जी को खट्टे अंगूर ज्यादा पसंद हैं इसीलिए उन्होंने अपने पार्टी
में ऐसे लोगों को ही भर लिया है और तो और जब मैंने अरविन्द जी को आगाह किया तो वो
मेरे ऊपर नाराज हो गये । हालाँकि अरविन्द जी का कहना है कि आशुतोष जी अधिक
महत्वाकांक्षी व्यक्ति हैं और राज्यसभा में नहीं भेजे जाने की वजह से हमसे दूर
जाकर कहीं और मौके की तलाश में लगे होंगे ।
समाजवादी पार्टी की
प्रवक्ता रही पंखुड़ी पाठक जी ने भी अपनी पार्टी को खट्टे अंगूर की श्रेणी में डाल
दिया है । कुछ दिन पहले ही उन्होंने समाजवादी पार्टी पर आरोप लगाते हुए पार्टी की
सदस्यता छोड़ दिया । महोदया का कहना था कि इस पार्टी में अब मेरा दम घुटने लगा है
क्योंकि यहाँ महिला नेत्रियों को बोलने की आजादी नहीं है । यह अलग बात है कि यही
मैडम समाजवादी पार्टी के तारीफों के पूल बांधा करती थी । जब पार्टी में इन्हें
प्रवक्ता पद से हटा दिया गया तो महोदया के लिए अंगूर खट्टे हो गये । इसी पार्टी
में कभी कद्दावर नेता रहे माननीय अमर सिंह जी भी अपनी पार्टी को समाजवादी पार्टी
की जगह नमाज़वादी पार्टी की संज्ञा दे रहे । आखिर अमर जी के लिए समाजवादी पार्टी
रूपी अंगूर खट्टे क्यों हो गये ? उन्होंने इस पार्टी को खट्टे अंगूरों के गुच्छों
की संज्ञा क्यों दिया ? इसके पीछे अमर जी के दूरदृष्टि को देखा जा सकता है । जबसे
पार्टी से नेताजी को दरकिनार किया गया है तबसे अमर साहब एक नई जगह की तलाश में हैं
। सूत्रों की माने तो अमर सिंह जी आजकल भारतीय जनता पार्टी को मीठे अंगूर का
गुच्छा समझ लार टपका रहे हालाँकि वो पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हैं कि ये अंगूर
उन्हें मिलेंगे । अगर उन्हें इस पार्टी का साथ मिला तो अंगूर मीठे अन्यथा उनकी नजर
में ये अंगूर भी खट्टे हो जायेंगे ।
रामविलास पासवान साहब एक
ऐसे नेता हैं जो अंगूर को कभी खट्टा नहीं कहते । शायद उन्हें पता है कि खट्टा
अंगूर भी कुछ समय के बाद मीठा हो जायेगा, सिर्फ अच्छे समय का इंतजार करना पड़ता है ।
यही वजह है कि पासवान साहब हमेशा सत्तासीन पार्टी का हिस्सा होते हैं । आजकल
बिहारी बाबू भी भारतीय जनता पार्टी को खट्टे अंगूर की श्रेणी में लाने के लिए जी
तोड़ मेहनत कर रहे हैं । कभी सत्ता का रसास्वादन करने वाले शत्रु साहब को जबसे
पार्टी में किनारे कर दिया गया था तभी से उनकी तड़प बढ़ गयी थी । काफी समय से वे
पार्टी को बुरा भला कह रहे थे क्योंकि उन्हें तमाम कोशिशों के बाद भी मन्त्रीमंडल
में जगह नहीं मिल पाई थी और अब उनकी हिम्मत ने भी छलांग लगाने से जवाब दे दिया था ।
अंततः उन्होंने अपनी पार्टी को खट्टा अंगूर घोषितकर केजरीवाल साहब और हार्दिक पटेल
जैसे नेता के साथ मंच साझा करने में खुद को व्यस्त कर लिया ।
आम जनता के लिए तो अंगूर
समयानुसार एवं परिस्थितिवश खट्टे और मीठे होते ही रहते हैं । व्यापारी से सरकार
टैक्स माँग ले तो अंगूर खट्टे और किसी तरह की छूट प्रदान करे तो अंगूर का स्वाद
मीठा हो जाता है । सरकारी कर्मचारियों की तो बात ही निराली है । त्योहार पर वेतन
के साथ अगर बोनस मिल जाये तो सरकार अच्छी और सरकारी छुट्टियों में कटौती कर दे तो
अंगूर तुरन्त खट्टे हो जाते हैं । सरकार यदि कर्मचारियों को समय पर काम पूरा करने
को कहे तो अंगूर खट्टे और कार्य करने का कोई दबाव न हो तो अंगूर का स्वाद मीठा
होता है । सरकारी योजनाएँ यदि अनुकूल हों तो अंगूर मीठे वरना अंगूर खट्टे । सरकार
यदि काम की समीक्षा करने लगे तो अंगूर खट्टे वरना अंगूर मीठे । हम जैसे अध्यापकों
के लिए तो कम टैक्स लेने वाली और अधिक छुट्टियाँ देने वाली सरकार ही मीठे अंगूर की
श्रेणी में आती है और जब इस पर नकारात्मक पहल होती है तो वह खट्टे अंगूर की श्रेणी
में आ जाती है । अभी मैं सोच में ही डूबा था कि बच्चों को ‘अंगूर खट्टे हैं’ के इन
उदाहरणों से अवगत कराऊँ, कक्षा समाप्त हो गयी और मैं अगले कक्षा में इस विषय पर
बात करने के लिए कहकर निकल गया ।
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