ज़िंदगी का सफ़र

खिड़की से दिखा जो, आसमाँ समझ लिया |

साथ में तन्हा भीड़ थी , कारवां समझ लिया ||

ज़िन्दगी के सवालों में, उलझा हुआ था कभी |

आसान से सवालों को,  इंतहां समझ लिया ||

खुद से दूर होकर जब, तलाशता रहा खुशियाँ |

किराये के मकां को ही, आशियाँ समझ लिया |

ठोकरों ने सिखाया,  सम्भलकर चलना मुझे |

ठोकरों को जब मैंने,  हमनवां समझ लिया ||

वक्त ने दिखाये 'दीप', ज़िंदगी के हजारों रंग |

ज़िंदगी का हर लम्हा, हसीं दास्तां समझ लिया ||

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