लोकतंत्र का आधार स्तंभ है पारदर्शी चुनाव व्यवस्था

 

किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए पारदर्शी चुनाव व्यवस्था अत्यन्त महत्वपूर्ण मानी जाती है | स्वस्थ निर्वाचन प्रक्रिया न सिर्फ लोकतंत्र को मजबूत करती है अपितु संवैधानिक मूल्यों की रक्षा भी करती है | यह प्रक्रिया नागरिकों में निष्पक्ष चुनाव का भाव पैदा करने के साथ ही आदर्श चुनाव व्यवस्था का बोध भी कराती है | इस पूरी प्रक्रिया को सही ढंग से क्रियान्वित करने में चुनाव आयुक्त की अहम् भूमिका होती है | चुनाव आयुक्त द्वारा लिए गये निर्णय न सिर्फ चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं अपितु लोकतंत्र की दशा एवं दिशा भी तय करते हैं | चुनाव आयुक्त किसी दल विशेष का प्रतिनिधित्व नहीं करता है, वह संवैधानिक दायित्व के निर्वहन के लिए स्वतंत्र संस्था का नेतृत्व करता है | चुनाव आयोग के मुखिया के रूप में कार्यरत चुनाव आयुक्त को विधिक एवं संवैधानिक अधिकार प्राप्त होते हैं जिससे वह देश में विभिन्न स्तर पर चुनाव को सम्पन्न करा सके | अनेक अवसरों पर विपक्षी दल चुनाव आयुक्त को कटघरे में खड़ा करते आये हैं, एवं सत्तापक्ष को फायदा पहुँचाने का आरोप लगाते रहे हैं |

तमाम आरोप-प्रत्यारोप के बीच चुनाव होते रहे हैं, साथ ही चुनाव प्रक्रिया में व्यापक सुधार भी देखने को मिला है | विशेष रूप से १९९० में चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त टी एन शेषन ने अपने कार्यकाल में चुनाव सुधारों की जो दिशा दिखलाई, उससे न सिर्फ चुनाव प्रक्रिया में सुधार हुआ अपितु मतदाताओं का भी इस प्रक्रिया में विश्वास बढ़ा | १९९०-९६ का दौर न सिर्फ चुनाव सुधारों के लिए जाना जाता है अपितु मतदाताओं को उनके अधिकार के प्रति जागरूक करने एवं राजनीतिक दलों को चुनाव प्रक्रिया में हस्तक्षेप से रोकने के लिए भी याद किया जाता है | टी एन शेषन ने चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए अनेक ठोस कदम उठाये, एवं चुनाव के दौरान राजनीतिक अराजकता को लगभग समाप्त कर दिया | इसके बाद कई चुनाव आयुक्त नियुक्त किये गये, एवं सभी ने टी एन शेषन के दिखाये रास्ते का अनुसरण किया | इस बीच केंद्र एवं राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल किया | सत्ता पक्ष को चुनाव आयुक्त का कार्य बहुत अच्छा लगा परन्तु विपक्ष में बैठे राजनेता चुनाव आयुक्त पर आरोप लगाने से नहीं चुके | किसी विशेष व्यक्ति को चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त करने की बात हो, अथवा चुनाव आयुक्त द्वारा लिए गये निर्णय को सत्तापक्ष को लाभ पहुँचाने वाला निर्णय बताकर हंगामा करने की बात, विपक्ष में बैठे राजनीतिक दल शिकायत करते रहे हैं |

तत्कालीन मामला निर्वाचन आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति से जुड़ा है | चुनाव सुधार से जुड़ी याचिका पर सुनवाई करते हुए पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने वर्तमान निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति से सम्बन्धित कुछ प्रश्न पूछे हैं एवं जानना चाहा है कि सरकार द्वारा नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता अपनाई गयी है या नहीं ? निश्चित तौर पर यह अहम् प्रश्न है | यह प्रश्न तब और भी अहम हो जाता है, जब विपक्ष चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर सवाल खड़े कर रहा हो | विपक्ष का आरोप है कि सरकार ने आगामी चुनावों में लाभ अर्जित करने के लिए किसी विशेष व्यक्ति को चुनाव प्रक्रिया के मुखिया की जिम्मेदारी दी है जबकि सरकार इसे सामान्य प्रक्रिया बता रही है | सरकार द्वारा जल्दबाजी में की गई चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को विपक्ष कटघरे में खड़ा कर रही है |

अब प्रश्न उठता है कि चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी कैसे बनाया जाये ? क्योंकि विगत कुछ वर्षों में पक्ष एवं विपक्ष में बैठे राजनैतिक दल स्वयं के लाभ से जुड़े मामलों के अतिरिक्त किसी भी मुद्दे पर साथ नहीं दिखे हैं | यहाँ तक कि देशहित से जुड़े कई मुद्दों पर भी गतिरोध दिखा है | विपक्ष में बैठे राजनेताओं द्वारा अनायास ही चुनाव आयोग पर टिप्पणी करना एवं संस्था पर कीचड़ उछालना उचित नहीं है | इससे जनमानस में न सिर्फ चुनाव प्रक्रिया के प्रति अविश्वास पैदा होगा अपितु स्वस्थ चुनाव की धार भी कुंद होगी | तमाम गतिरोधों के बावजूद राजनीतिक दल मजबूत चुनाव आयोग के लिए प्रयासरत नहीं दिखते हैं | राजनीतिक दलों को यह ध्यान रखना होगा कि चुनाव आयोग नामक संस्था को कमजोर करने से लोकतंत्र भी कमजोर होगा, जो देश हित में कदापि नहीं है | उच्च संवैधानिक पद पर नियुक्ति के समय सरकार को अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए जबकि विपक्ष को भी निराधार आरोप लगाने से बचना चाहिए क्योंकि इससे न सिर्फ संवैधानिक पद पर प्रश्न चिन्ह लगता है अपितु उस पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा लिए जाने वाले निर्णय को भी संदेह की नज़र से देखा जाता है | निर्वाचन आयुक्त की गरिमा तभी बनी रहेगी जब वह लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया को संपन्न कराने में सफल होंगे |

विगत तीन दशक देश में चुनाव सुधारों के साक्षी रहे हैं | अनेक बाधाओं को पार करते हुए चुनाव आयोग ने देश के उन हिस्सों में भी सफल चुनाव कराया है जहाँ पारदर्शी चुनाव की कल्पना नहीं की जा सकती थी | देशविरोधी एवं लोकतंत्र विरोधी ताकतों से लड़कर चुनाव आयोग ने एक ऐसे वातावरण को निर्मित करने में सफलता प्राप्त की है जिसमें मतदाता अपने मताधिकार का उपयोग करने को स्वतंत्र है | ऐसे में देश में लोकतंत्र की बुनियाद को सशक्त करने वाली इस संस्था को हस्तक्षेप एवं संदेह दोनों से मुक्त रखने की आवश्यकता है | निर्वाचन आयुक्त एक ऐसी संस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सरकार नामक संस्था की संरचना निर्धारित करती है | मतदाताओं की भावनाओं को जनादेश के रूप में संकलित कर देश को सुदृढ़ सरकार देने में निर्वाचन आयुक्त के निष्पक्ष निर्णय अहम हैं, इसलिए इस संस्था को पारदर्शी बनाने के साथ ही शक्तिशाली बनाना भी आवश्यक है | चुनाव आयोग को सुदृढ़ बनाने में वित्तीय स्वायत्तता भी अहम हो सकती है, साथ ही सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त रखकर ही इस संस्था को किसी प्रकार के संदेह से मुक्त रख सकते हैं | हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि चुनाव आते-जाते रहेंगे परन्तु चुनाव की सार्थकता तभी रहेगी जब इस प्रक्रिया में पूर्ण पारदर्शिता होगी |

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