शैक्षणिक उन्नयन की ओर बढ़ते भारतीय कदम
विगत कुछ वर्षों में भारत सरकार ने शिक्षा प्रणाली में कई बदलाव किये हैं जिसका
मूल उद्देश्य भारतीय शिक्षा पद्धति को भारतीय मूल्यों से पोषित एवं रोजगारोन्मुखी बनाना
है जिससे उपलब्ध मानव संसाधन को वैश्विक अवसरों के योग्य बनाया जा सके | विशेष रूप
से, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में जो बदलाव किये जा रहे हैं उनके दूरगामी परिणाम प्राप्त
हो सकते हैं बशर्ते उच्च शिक्षण संस्थानों का वातावरण शैक्षणिक बदलावों के अनुकूल हो
| राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ने एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था
का मार्ग प्रशस्त किया है जिसमें भारत को ज्ञान के केंद्र के रूप में पुनःस्थापित करने
के साथ ही जीवंत समाज निर्माण के आधारतत्व निहित हैं | इससे भारतीय शिक्षा व्यवस्था
का कायाकल्प होने की उम्मीद जगी है तो वहीं मैकाले पद्धति की शिक्षा व्यवस्था को पीछे
छोड़कर भारतीय समाज के अनुकूल एक नई शिक्षा व्यवस्था निर्मित करने का प्रयास दिखलाई
देता है | यह शिक्षा पद्धति, भारतीय भाषा में शिक्षा प्रदान करने की ओर कदम बढ़ाने के
साथ ही कौशलयुक्त शिक्षा पर भी जोर देती है जिससे शिक्षा के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक
पक्ष दोनों का लाभ शिक्षार्थी को मिल सके | इसमें उच्च शिक्षा को लचीला बनाने का प्रयास
भी किया गया है जिससे शिक्षार्थी को विषय चुनने के अधिक विकल्प मिलें, साथ ही पाठ्यक्रम
में यथोचित बदलाव की बात की गयी है | यह नीति भारतीय ज्ञान परम्परा को महत्त्व देने
के साथ ही शिक्षा को तकनीकी से जोड़ने की बात भी करती है | राष्ट्रीय शिक्षा नीति का
तर्कसंगत क्रियान्वयन एवं उसकी सार्थकता मूल्यपरक एवं गुणवत्तायुक्त शिक्षा पर ही निर्भर
करता है जिसे शिक्षकों की सक्रीय सहभागिता के बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता है,
इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षक को तकनीकी कौशल के उन्नयन का समुचित अवसर मिले, उसे अनुसंधान
कार्यों के लिए अवसर एवं वित्तीय सहायता प्राप्त हो, साथ ही प्रशासनिक कार्यों का अत्यधिक
भार न हो, अन्यथा इसके सार्थक परिणाम प्राप्त करना कठिन हो जायेगा क्योंकि शैक्षणिक
गतिविधि बौद्धिक चिंतन से जुड़ा कार्य है |
वर्तमान सरकार ने समग्र शिक्षा अभियान को गति प्रदान करने का यथासंभव प्रयास
भी किया है, एवं विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के साथ ही मेडिकल इत्यादि से जुड़े शिक्षण
संस्थानों की संख्या में बृद्धि देखने को मिली है | आई आई टी, एन आई टी, आई आई एम,
एवं मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़ाने के साथ ही उनमें विद्यार्थी-प्रवेश की क्षमता भी
बढ़ाई गयी है | स्वतंत्रता के समय देश में केवल 20 विश्वविद्यालय थे जो वर्तमान में 1078 के आँकड़े को पार कर चुके हैं जबकि 42 हजार से अधिक महाविद्यालय आज अस्तित्व में हैं | विश्वविद्यालय
अनुदान आयोग द्वारा मार्च, 2023 में प्रस्तुत एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 54 केन्द्रीय विश्वविद्यालय, 464 राज्य विश्वविद्यालय, 128 डीम्ड टू बी विश्वविद्यालय एवं 432 निजी विश्वविद्यालय थे | हालाँकि जनसंख्या अनुपात की दृष्टि से इनकी संख्या अभी
भी कम ही है जबकि गुणवत्ता की दृष्टि से भी हम बहुत पीछे दिखलाई देते हैं | भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी 2023-24 की रिपोर्ट के अनुसार उच्चतर शिक्षा में नामांकन बढ़ा है, 2014-15 में यह आँकड़ा 3.42 करोड़ था जो वर्ष 2021-22 में 26.5 प्रतिशत बढ़कर 4.33 करोड़ हो गया जबकि इस दौरान शोध छात्रों की संख्या
1.17 लाख से बढ़कर 2.12 लाख हो गई | निश्चित रूप से यह आंकडें बता रहे हैं
कि सरकार समग्र शिक्षा के लक्ष्य की ओर कदम तो बढ़ा रही है परन्तु उच्च शिक्षा में भारत
का सकल नामांकन अनुपात (28.4 प्रतिशत ) हमारे प्रयासों
पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता है | इस रिपोर्ट के अनुसार इन संस्थानों में शिक्षकों की संख्या
15,97, 688 है, यह दर्शाता है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात भी विकसित
देशों की तुलना में कम है, जिसको बढ़ाने की आवश्यकता है |
आज अनेकों भारतीय विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं
जिसकी ओर सरकार को ध्यान देने की आवश्यकता है अन्यथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति को पूर्णरूपेण
क्रियान्वित करने में कठिनाई आ सकती हैं | हाल ही में यू जी सी द्वारा प्रस्तुत नये
ड्राफ्ट को लेकर भी सरकार एवं विपक्ष आमने-सामने दिखाई दे रहे हैं, सरकार का कहना है
कि शिक्षा क्षेत्र में किये जा रहे बदलाव वर्तमान की जरुरत है तो वहीं विपक्षी दल इसे
राजनीतिक बता रहे हैं | निश्चित रूप से शिक्षा से जुड़ी योजनाएं भविष्य को ध्यान में
रखकर बनानी चाहिए क्योंकि इन योजनाओं से देश का वर्तमान और भविष्य दोनों प्रभावित होता
है | विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को दीर्घकालीन योजना लेकर आगे बढ़ना चाहिए क्योंकि कुछेक
अवसरों पर आयोग की यू-टर्न नीति से कई प्रकार की व्यावहारिक समस्याएँ भी देखी गयी हैं
जिससे शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया प्रभावित हुई है, साथ ही शिक्षण संस्थानों को
कई प्रकार की अड़चनों का सामना करना पड़ा है | हाल ही में आयोग ने अपने क्षेत्र में ख्यातिलब्ध
व्यक्ति एवं कॉर्पोरेट जगत के विद्वान लोगों के लिए प्रोफेसर इन प्रैक्टिस के रूप में शिक्षण संस्थानों के द्वार खोल दिया, निश्चित रूप
से इसके पीछे सरकार की मंशा थी कि शिक्षण संस्थानों में सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक
ज्ञान का बेहतर समन्वय हो जिससे विद्यार्थी लाभान्वित हों | सरकार ने ऐसे पदों को शैक्षणिक
संस्थानों में स्वीकृत पदों से अलग रखा है जिसे एक सकारात्मक कदम माना जा सकता है | हालाँकि विश्वविद्यालयों
में गैर-अकादमिक व्यक्तियों के कुलपति पद पर नियुक्ति की संभावनाओं ने विपक्ष को सरकार
पर हमला करने का मौका दे दिया है, एवं विपक्ष इसे शैक्षणिक संस्थानों के लिए हानिकारक
बता रहा है | कुलपति की नियुक्ति से सम्बंधित ज्यादातर प्रावधान 2010 के विनियम के अनुसार ही है, हालाँकि इस प्रक्रिया को लचीला
अवश्य कर दिया गया है जिससे उच्च प्रशासनिक पदों पर बैठे, एवं अपनी विधा में उत्कृष्ट
कार्य करने वाले लोगों के लिए भी अवसर बन सके | यूजीसी के नये मसौदे को लेकर कुछ भ्रम
की स्थिति अवश्य है | सरकार नई शिक्षा नीति को पूरी तरह से लागू करना चाहती है वहीं
शिक्षण संस्थान अपेक्षित कार्य करने में पूरी तरह से सफल नहीं हो सके हैं | भारतीय
भाषाओं में प्रकाशन को बढ़ावा देने का प्रयास भी एक सकारात्मक कदम है, हालाँकि मान्य
प्रकाशक पर और स्पष्टता की आवश्यकता है | एक तरफ तो सरकार भारतीय भाषाओं को प्रमुखता
देना चाहती है तो वहीं नैक एवं अन्य रेटिंग एजेंसियां विदेशी भाषा में प्रकाशित होने
वाले स्कोपस के शोध प्रकाशनों को ही उत्कृष्ट प्रकाशन का मानक मानती हैं | ऐसे में
शिक्षक भारतीय भाषाओं में प्रकाशन को महत्त्व दे, या फिर स्कोपस में प्रकाशित विदेशी
भाषा की अंतर्वस्तु को ? डिजिटल अंतर्वस्तु निर्माण प्रक्रिया में भी शैक्षणिक संस्थानों
की सहभागिता भिन्न स्तर पर देखी जा सकती है क्योंकि सभी संस्थानों में उपलब्ध संसाधन
अलग हैं, साथ ही उपलब्ध अवसरों में भी भिन्नता देखी जा सकती है | ऑनलाइन पाठ्यक्रम
संचालित करने की दिशा में भी कई रूकावटें दिखती हैं जिनका समाधान आवश्यक है |
उच्च शिक्षण संस्थानों में नियुक्ति एवं पदोन्नति के लिए कुछ नये दिशा निर्देश
दिये गये हैं जिसे शिक्षा मंत्रालय द्वारा शैक्षणिक जगत में एकरूपता प्रदान करने की
ओर बढ़ाया गया कदम बताया जा रहा है, एवं गैर अकादमिक योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति को
शिक्षण कार्य देने के पीछे तर्क दिया गया है कि इससे शिक्षण संस्थान एवं इंडस्ट्री
के बीच की दूरी कम होगी, एवं शिक्षण संस्थान इंडस्ट्री की मांग के अनुसार मानव संसाधन
उपलब्ध कराने में सफल हो सकेंगे | अब महत्वपूर्ण प्रश्न है कि इस प्रक्रिया में शैक्षणिक
योग्यता रखने वाले, एवं अपने क्षेत्र में बड़ी उपलब्धि हासिल करने वालों में से अधिक
योग्यता रखने वाले का निर्धारण कैसे होगा ? असिस्टेंट प्रोफेसर पर नियुक्ति में चयन
समिति का एकाधिकार, शैक्षणिक अनुभव रखने वाले अभ्यर्थियों को अवश्य चुभेगी | पिछले
कुछ वर्षों में विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्र में जिस तेजी से बदलाव हुए हैं,
शैक्षणिक जगत भी उनसे तेजी से प्रभावित हुआ है | ऐसे में वैश्विक मंच की आवश्यकताओं
के लिए हमें योग्य मानव संसाधन तैयार करने की अत्यंत आवश्यकता है, और यह कार्य उत्कृष्ट
शिक्षण संस्थान ही कर सकते हैं जिनकी उत्कृष्टता का केंद्र-बिंदु शिक्षक ही हैं |
ऐसे में सरकार के लिए मूल्य आधारित शिक्षा को महत्त्व देने के साथ ही वैश्विक बाजार
केन्द्रित शिक्षण व्यवस्था उपलब्ध कराने की चुनौती है | एक तरफ सरकार देश में विदेशी विश्वविद्यालयों के
परिसर स्थापित करने की ओर कदम बढ़ा चुकी है तो वहीं दूसरी तरफ देश के शिक्षण संस्थानों
को भी वैश्विक स्तर पर ले जाने की इच्छा रखती है | प्रतिष्ठित विदेशी शैक्षणिक संस्थान
के देश में परिसर खुलने से विदेश में जाकर शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या
में कमी आएगी, एवं इससे आर्थिक बचत के साथ प्रतिभा पलायन में भी कमी आ सकती है क्योंकि
पिछले कुछ वर्षों में विदेश जाने वाले भारतीय छात्रों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है
| विदेशी विश्वविद्यालयों में पढाई के दौरान मिलने वाली फेलोशिप एवं वैश्विक
रैंकिंग भी छात्रों को सहज ही आकर्षित करती है | शोध कार्य के लिए मिलने वाली वित्तीय
सहायता भी अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, एवं कनाडा जैसे कई प्रमुख देशों में बहुत अधिक है
जबकि भारतीय विश्वविद्यालयों में मिलने वाली वित्तीय सहायता एवं सुविधा कुछेक संस्थानों
में ही संतोषजनक है | अमेरिका में उच्च शिक्षा लचीली है, एवं अमेरिकी शिक्षा प्रणाली
संघीय सरकार के विनियमन से काफी हद तक स्वतंत्र एवं अत्यधिक विकेन्द्रित है | यहाँ
उच्च शिक्षा में गैर लाभकारी संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण नजर आती है | ब्रिटेन गुणवत्तायुक्त
शिक्षा के क्षेत्र में विशेष पहचान रखता है एवं विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम को महत्त्व
देता है | अमेरिका एवं ब्रिटेन दोनों ही देश उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विशिष्ट पहचान
रखते हैं जिसमें शिक्षा एवं अनुसंधान के क्षेत्र में एक बड़ा निवेश देखा जा सकता है
| इन दोनों देशों में स्कालरशिप एवं फेलोशिप से प्राप्त होने वाली राशि भी शिक्षार्थी
का कार्य आसान बना देती है | भारत सरकार द्वारा इन देशों में उपलब्ध शिक्षण व्यवस्था
के मुख्य बिन्दुओं को अपनी शिक्षा व्यवस्था में समाहित करने का भरसक प्रयास किया जा
रहा है परन्तु हमारे देश की सामाजिक, आर्थिक, एवं राजनैतिक व्यवस्था इस दिशा में अड़चनें
पैदा कर रही हैं |
किसी राष्ट्र की शिक्षा व्यवस्था राष्ट्र की दिशा और दशा दोनों का निर्धारण करती
है | शिक्षा, व्यक्ति के समग्र जीवन को प्रभावित करने के साथ ही समाज एवं राष्ट्र दोनों
का ही भविष्य तय करती है | राष्ट्र की शिक्षा व्यवस्था जितनी सुदृढ़ होगी, राष्ट्र उतनी
ही तेजी से प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होगा | समय सापेक्ष शिक्षा व्यवस्था में सुधार
होना आवश्यक है जिससे इस क्षेत्र को विषयगत जड़ता से मुक्त रखा जा सके | स्वतंत्रता
के तुरंत बाद ही सरकार ने शिक्षा सुधार की दिशा में कदम बढ़ा दिया था | 1948 में गठित विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की संस्तुतियां हों
या फिर 1964 में गठित कोठारी आयोग की
संस्तुतियां, शैक्षणिक संस्थानों के सुदृढ़ीकरण के लिए महत्वपूर्ण थीं | ऐसे ही,
वर्तमान वैश्विक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर शिक्षा के क्षेत्र में किये गये तर्कसंगत
बदलाव भी आवश्यक हैं | आज यदि हम विश्व के प्रमुख शिक्षण संस्थानों की पंक्ति में खड़ा
होना चाहते हैं तो हमें समग्र शिक्षण व्यवस्था के लिए दूरदर्शी दृष्टिकोण के साथ आगे
बढ़ना होगा | समय सापेक्ष बदलाव सही हैं बशर्ते हम प्रायोगिक शिक्षा को बढ़ावा दें न
कि शिक्षा क्षेत्र में प्रयोगों को | निश्चित रूप से भारत सरकार अमेरिका की तरह ही
शिक्षा व्यवस्था को लचीला बनाना चाहती है, एवं चीन की भांति मातृ भाषा में शिक्षा
को प्रमुखता देना चाहती है परन्तु बहुभाषीय भौगोलिक क्षेत्र में यह अत्यधिक कठिन प्रतीत
होता है | यदि हमें मस्कट्स, ऑक्सफोर्ड, शिकागो, हार्वर्ड, कैम्ब्रिज इत्यादि विश्वविद्यालयों
जैसे शैक्षणिक संस्थान देश में चाहिए तो शैक्षणिक वातावरण में सुधार के साथ ही अनुसंधान
के क्षेत्र में अत्यधिक निवेश करना होगा | विश्वविद्यालयों को आवश्यक वित्तीय
सहायता, मानव संसाधन, एवं ढांचागत सुविधाएं विकसित करने की दिशा में आवश्यक सहायता
करना भी सरकार की जिम्मेदारी है जिससे हमारे शिक्षण संस्थान वैश्विक शिक्षा जगत में
अपनी छाप छोड़ सकें एवं नालंदा तथा तक्षशीला जैसे ज्ञान केन्द्रों के गौरव को प्राप्त
कर सकें |
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