न्यायिक सुधारों की धीमी रफ़्तार से न्याय-व्यवस्था बीमार

 


किसी भी देश में लोकतांत्रिक मूल्यों को जिंदा रखने में उस देश की न्यायपालिका महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है | न्यायपालिका का सुदृढ़ होना न सिर्फ लोकतंत्र के लिए आवश्यक है अपितु देश को किसी भी अराजक स्थिति से बचाने में यह रक्षा कवच के रूप में कार्य करती है | सशक्त से अशक्त को न्याय दिलाने वाली न्यायपालिका का स्थान लोकतंत्र में काफी ऊँचा है, परन्तु न्याय की उम्मीद लिये आम जनमानस की इस अंतिम शरणस्थली में मिलने वाली प्रत्येक अगली तारीख पीड़ित की वेदना को बढ़ाने का कार्य करती है, और समय बीतने के साथ यह वेदना पीड़ित के न्यायपालिका में विश्वास का ह्रास करती जाती है | न्याय मिलने की धीमी प्रक्रिया से न सिर्फ पीड़ित व्यक्ति का मनोबल टूटता है अपितु वह आर्थिक, मानसिक एवं शारीरिक रूप से भी कमजोर होता जाता है | तारीख पर तारीख झेलने वाले अनगिनत मुकदमों में फैसला तब आता है जब उस फैसले का कोई औचित्य नहीं रह जाता है क्योंकि इस दौरान पीड़ित व्यक्ति सामाजिक, आर्थिक, एवं शारीरिक दुर्दशा की उस पीड़ा को झेलने को विवश होता है जो न्याय मिलने के बाद भी समाप्त नहीं होती है | न्याय के लिए साक्ष्य आवश्यक है, साक्ष्य के अभाव में न्यायालय से अनगिनत आरोपी सजा से बच निकलते हैं, ऐसे में न्याय व्यवस्था पर प्रश्न खड़े करने से पहले हमें सामाजिक व्यवस्था को भी कटघरे में खड़ा करना चाहिए क्योंकि सामाजिक महिमामंडन एवं राजनैतिक संरक्षण रुपी कवच कई अवसरों पर आरोपी और साक्ष्य के बीच दूरी पैदा कर देता है जिससे न्याय प्रक्रिया भी लंबित हो जाती है | हालाँकि गम्भीर बीमारी बताकर जमानत प्राप्त करने वाला कोई धनाढ्य व्यक्ति अगले ही दिन जब कोई सार्वजनिक सभा में सम्मिलित हुआ दिखलाई देता है तो हमारी न्याय व्यवस्था हँसी के पात्र के रूप में दिखती है |

वर्तमान में अदालतों को त्वरित रूप से कार्य सम्पादित करने के लिए कुछ सुधार की आवश्यकता है, कुछ सुधार संसाधन से जुड़े हैं तो कुछ इच्छा शक्ति पर निर्भर करते हैं, कुछ सुधार कार्य प्रबंधन से जुड़े हैं तो कुछ उपलब्ध कानून में बदलाव की मांग करते हैं | आज अदालतों के समक्ष कार्यभार प्रबंधन जैसी बड़ी चुनौती स्पष्ट रूप से दिखलाई देती है क्योंकि देश में बढ़ते अपराध एवं अदालतों की आधारभूत संरचना में काफी अंतर है | निचली अदालतों से लेकर सुप्रीमकोर्ट में लंबित केस की संख्या में बढ़ोत्तरी कानून व्यवस्था के समक्ष में मुश्किलें पैदा कर रही हैं | नेशनल जुडिशल डाटा ग्रिड की वेबसाइट पर उपलब्ध आकड़ों के अनुसार देश में साढ़े चार करोड़ से अधिक केस लंबित हैं जिनमें 3 करोड़ 45 लाख से अधिक आपराधिक मामले हैं जबकि सिविल केस की संख्या भी 1 करोड़ 8 लाख से अधिक है, ऐसे में उपलब्ध अदालतें, उनमें जजों की संख्या एवं आधारभूत संरचना न्याय प्रक्रिया की गति को बाधित करती हैं | निचली अदालतों से लेकर सुप्रीमकोर्ट आने वाले मामलों का निपटारा समय से कर सके, इसके लिए अदालतों में मानव संसाधन बढ़ाने के साथ ही तकनीकी क्षमता भी बढ़ानी होगी जिससे न्याय प्रक्रिया को गति प्रदान की जा सके | देश की 25 उच्च न्यायालयों में भी लंबित केस की संख्या काफी है जबकि उपलब्ध संसाधन में कमी दिखती है | विगत एक दशक में अदालतों में आधुनिक सुविधाओं की उपलब्धता बढ़ी है एवं आधारभूत संरचना में भी सुधार हुआ है परन्तु अभी भी 140 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले देश के लिए यह कम है, ऐसे में सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है की अदालतों में आवश्यक मानव संसाधन एवं तकनीकी संसाधन की आवश्यक उपलब्धता सुनिश्चित करे जिससे अदालतें अपना कार्य सुचारू रूप से सम्पादित कर सकें | वीडियो कांफ्रेंसिंग से होने वाली सुनवाई प्रक्रिया भी दूर-दराज के क्षेत्र से जुड़े मामलों को गति प्रदान कर सकती है जिसके लिए सभी आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता आवश्यक हो जाती है |

सामाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से संचालित हो, इसके लिए न्याय व्यस्था का सुदृढ़ एवं सशक्त होना भी आवश्यक है | ऐसे में सरकार द्वारा किये गये संविधान संसोधन न्यायपालिका को और अधिक शक्ति प्रदान करें जिससे बदलते सामाजिक परिवेश में अदालतें न्याय सम्मत फैसला कर सकें | संसद एवं न्यायपालिका की दिशा का एक होना देशहित में है जबकि किसी प्रकार का मतभेद लोकतंत्र को कमजोर कर सकता है | इंदिरा गाँधी के समय में जब सरकार ने संविधान का 24 वां संसोधन किया था तब संसद एवं न्यायपालिका के बीच टकराव की स्थिति देखी गयी थी | इसके कुछ समय बाद ही केशवानंद भारती केस में एस एम सीकरी की अगुआई में 13 सदस्यीय बेंच ने अपने फैसले में कहा था कि सरकारें संविधान से ऊपर नहीं हैं, सरकार कानून में कोई बदलाव करती है तो अदालत की सरकार के उस फैसले की न्यायिक समीक्षा का अधिकार है | शाह बानो केस एवं सौरभ किरपाल से जुड़े विषय पर भी सरकार एवं न्यायपालिका की दिशा अलग-अलग दिखी जिससे आम जनमानस में गलत संदेश गया | निश्चित रूप से न्यायसंगत कोई भी निर्णय स्वीकार्य होना चाहिए, एवं लोकतंत्र के सभी स्तम्भ सहगामी होने चाहिए जिससे राष्ट्र को और अधिक सशक्त किया जा सके |

आज हम सामाजिक सुधारों की बात तो करते हैं परन्तु बात जब न्यायिक सुधार की होती है तो न्यायपालिका का मौन कचोटता भी है क्योंकि सामाजिक सुधारों का रास्ता न्यायपालिका के पवित्र चौखट से होकर ही जाता है | सरकार सामाजिक सुधारों की दिशा में अनेकों कदम उठा रही है, यह प्रयास तभी फलीभूत होंगे जब कार्यपालिका एवं विधायिका के साथ ही न्यायपालिका में भी पारदर्शी व्यवस्था हो | राष्ट्रीय न्यायिक आयोग विधेयक 2014 इस दिशा में सरकार द्वारा बढ़ाया गया एक कदम था | संविधान के 99 वें संसोधन के माध्यम से सरकार चाहती थी कि कोलेजियम प्रणाली के स्थान पर सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता लाये जिससे चयन प्रक्रिया पर कोई सवाल न उठा सके, हालाँकि न्यायपालिका का यह मानना था कि सरकार का यह फैसला न्यायपालिका के निर्णय को प्रभावित कर सकता है, इसमें विधि एवं न्याय मंत्री तथा दो अन्य नामित व्यक्ति की उपस्थिति न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर असर डाल सकता है | 2015 में सुप्रीमकोर्ट ने एक फैसले में इस अधिनियम को अमान्य एवं असंवैधानिक घोषित कर दिया | जस्टिस वर्मा से जुड़े ताजा प्रकरण ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए शुरू हुई कालेजियम प्रणाली पर एक बार फिर से समाज में बहस छेड़ दिया है, जिसे समाप्त करना प्रधान न्यायाधीश के अतिरिक्त उन 4 न्यायाधीशों के विवेक पर निर्भर करता है जो वर्तमान कोलेजियम का हिस्सा हैं | न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं स्थानान्तरण से जुड़ी इस व्यवस्था का भविष्य में स्वरुप जो भी हो, वर्तमान प्रकरण में इस व्यवस्था पर जो प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे उसे समाप्त करना भी कोलेजियम सदस्यों की ही जिम्मेदारी है | न्याय के सिंहासन पर बैठे न्यायाधीश से मूल्यपरक आचरण की अपेक्षा की जाती है, जो न सिर्फ न्याय व्यवस्था के प्रति सम्मान का स्तर निर्धारित करती है अपितु इससे समाज में एक सकारात्मक संदेश भी जाता है | निचली अदालत हो या फिर उच्च न्यायालय, न्यायधीशों द्वारा की गई कोई भी टिपण्णी भी न्यायपालिका के आदर्शों को स्थापित करने वाला होना चाहिए | विगत दिनों सुप्रीमकोर्ट ने इलाहबाद हाईकोर्ट द्वारा दुष्कर्म से जुड़े एक फैसले पर की गई टिपण्णी को न सिर्फ असंवेदनशील बताया अपितु इस प्रकार की टिपण्णी को कानूनी रूप से अव्यावहारिक भी कहा | कुछेक अवसरों पर पहले भी न्यायाधीश महोदयों की टिपण्णी न्याय के आदर्श मानदण्डों के प्रतिकूल दिखी जिससे आम जनमानस की भावनाएं आहत हुईं | दो वर्ष पहले कोलकाता हाईकोर्ट द्वारा यौन हिंसा से जुड़े एक मामले पर की गयी टिपण्णी को भी सुप्रीमकोर्ट ने बेहद गैरजरूरी बताया था | निश्चित रूप से न्याय की उम्मीद में न्यायालय में बैठी पीड़िता पर जब ऐसी टिपण्णी की जाती है तो इससे न सिर्फ पीड़िता के जख्म हरे हो जाते हैं अपितु अपराधी प्रवृत्ति के लोगों का मनोबल भी बढ़ता है जो न तो न्याय व्यवस्था के लिए ठीक है न ही सामाजिक व्यवस्था के लिए ही ठीक है |

 

 

 

 

 


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