पृथ्वी के प्रति संवेदनशील आचरण जरुरी
सृष्टि निर्माण के लिए आवश्यक पंच तत्वों में से एक क्षिति अर्थात
पृथ्वी हमारे जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है, यह पर्यावरण का न सिर्फ अनिवार्य
अंग है अपितु जीवन-चक्र को संचालित करने में भी महती भूमिका का निर्वहन करती है |
मनुष्य के साथ ही लाखों जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों के लिए यह जननीतुल्य अथवा जननी
है | आज हमारी उपभोक्तावादी सोच के कारण निरंतर ही धरा का क्षरण हो रहा है जिसके कारण
अनेक समस्याएँ जन्म ले रही हैं | एक तरफ तो हम पृथ्वी के श्रृंगार रुपी जंगलों को काटते
जा रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ प्लास्टिक एवं घरेलू कचरों से इसको निरंतर पाटते जा रहे
हैं | पृथ्वी के गर्भ में मौजूद प्राकृतिक संसाधन हों या पहाड़ों के रूप में अनगिनत
श्रृंखलाएं, ग्लेशियर, समुद्र एवं झीलों के रूप में जल के स्रोत हों या फिर नदियों के रूप में जल की अविरल धाराएं, सभी को
मानव की उपभोक्तावादी सोच ने प्रभावित किया है जिससे पृथ्वी पर जैव विविधता का तेजी
से ह्रास होने के साथ ही प्राकृतिक असंतुलन का खतरा गहराता जा रहा है जो न ही मानव
हित में है और न ही पृथ्वी पर अस्तित्व रखने वाले जीव-जंतु एवं वनस्पतियों
के हित में ही है |
आज पृथ्वी की अनेक इकाईयां हमारे अदूरदर्शी
सोच के कारण प्रभावित हुई हैं जिसमें नदियों एवं समुद्र का पारिस्थितिकीय तंत्र पर
अत्यंत नकारात्मक असर पड़ा है | नदियों एवं समुद्र में प्लास्टिक कचरा की मात्रा लगातार
बढ़ रही है जिससे इन इकाईयों में निवास करने वाले अनेकों जीव-जन्तुओं के समक्ष अस्तित्व
का संकट उत्पन्न हो गया है | ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ़ नेचर’ की एक रिपोर्ट के अनुसार 1.4 करोड़ टन प्लास्टिक प्रति वर्ष समुद्र में डाल दिया जा रहा है जिससे समुद्र में
इस हानिकारक पदार्थ की मात्रा निरंतर ही बढ़ती जा रही है जिससे भविष्य में कई प्रकार
के संकट जन्म ले सकते हैं | यूनेस्को को ओसियन लिटरेसी पोर्टल पर उपलब्ध जानकारी के
अनुसार समुद्र में ५०-७५ खरब प्लास्टिक के टुकड़े एवं माइक्रो-प्लास्टिक मौजूद हैं जो
एक चिंता का विषय है | प्लास्टिक की मौजूदगी समुद्र के पारिस्थितिकीय तंत्र को बुरी
तरह से प्रभावित कर रहा है एवं समुद्र की सतह एवं तलहटी में प्लास्टिक का अम्बार,
समुद्र में रहने वाले जीव-जन्तुओं का जीवन नष्ट कर रहा है |
विश्व की अनेक नदियाँ घरेलू अपशिष्ट की बोझ से अपना दम तोड़ती जा रही हैं, साथ ही
अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों की खामियों का दंश झेलने वाली
अनेक नदियाँ आज कई समस्याओं से जूझ रही हैं जिससे इनका पारिस्थितिकीय तंत्र पर नकारात्मक
असर हुआ है | पृथ्वी के उदर तक वर्षा के जल को पहुंचाने
वाली ताल, पोखर जैसी छोटी-छोटी अनगिनत इकाईयां मानव के लोभ के कारण अस्तित्व-विहीन
हो चुकी हैं जिससे भू-गर्भ जल का स्तर गिरता जा रहा है एवं अनेक क्षेत्रों में यह अत्यंत
निचले स्तर पर जा चुका है | मिट्टी में मिलते जा रहे प्लास्टिक के कण अथवा छोटे टुकड़े
मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहे हैं एवं मिट्टी की सतह में निवास करने वाले
सूक्ष्म जीवों का जीवन नष्ट कर रहे हैं | किसानों का मित्र कहे जाने वाला केंचुआ,
जो मिट्टी की उर्बराकता को बढ़ाने का कार्य करता था, आज कीटनाशकों एवं प्लास्टिक के
कणों के कारण अस्तित्व का संकट झेल रहा है | फसलों के डंठल अथवा बचे हिस्से को खेत
में जलाने की परम्परा से मिट्टी की सतह में पलने वाले सूक्ष्म जीव को जाने-अनजाने में
हम नष्ट कर देते हैं जो पारिस्थितिकीय तंत्र को सुचारू रूप से संचालित करने में अहम्
भूमिका निभाते थे | रासायनिक खाद एवं दवाईयों के अंधाधुंध प्रयोग ने भी कई प्रकार की
समस्या को जन्म दिया है जिससे पृथ्वी पर जीवन कठिन होता जा रहा है |
हमें समझना होगा कि पृथ्वी पर प्रदूषण
सिर्फ क्षेत्रीय अथवा राष्ट्रीय समस्या नहीं है, यह वैश्विक समस्या भी है | सीमाओं
में बंटे देश संसाधनों का बंटवारा तो कर लेते हैं परन्तु हम भूल जाते हैं कि हम पृथ्वी
के मालिक नहीं है अपितु इस पृथ्वी पर सभी जीव-जन्तुओं का भी अधिकार है | हम जिस दिन
इस बात को स्वीकार कर लेंगे कि हमारा अस्तित्व पृथ्वी पर रहने वाले समस्त जीव-जन्तुओं
एवं वनस्पतियों का सहगामी है, हमारी अनेक समस्याएँ अपने आप ही समाप्त हो जायेंगी |
पृथ्वी को शांत रखकर ही हम पृथ्वी पर शांत जीवन की कल्पना कर सकते हैं, जबकि युद्ध
रुपी वैश्विक अशांति पृथ्वी पर जीवन को दुष्कर करता जायेगा | युद्ध की विभीषिका
से छलनी होती पृथ्वी पर मानव जीवन का जो भी नुकसान हो, इससे जैव विविधता का ह्रास भी हुआ है जो भविष्य के लिए ठीक नहीं है | पृथ्वी के अनेक
भूभागों में हो रहे हथियारों के परीक्षण हों अथवा दो देशों के मध्य चल रहे युद्ध,
मानव जीवन के साथ ही पारिस्थितिकीय तंत्र पर भी नकारात्मक असर डाल रहे हैं |
जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग के कारण अनेक जीव-जंतु दुर्लभ प्रजाति की श्रेणी
में पहुँच चुके हैं | विगत कुछ वर्षों से राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण
संरक्षण की दिशा में अनेक प्रयास हो रहे हैं जिनका उद्देश्य लोगों को जागरूक करना एवं
उनके दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना है | रिओ सम्मेलन जिसे पृथ्वी शिखर सम्मेलन
के नाम से भी जाना जाता है पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था | 1992 में ब्राजील के रिओ डी जेनेरियो में आयोजित सम्मेलन में पर्यावरण संरक्षण के लिए
किये जाने वाले उपायों पर वैश्विक चर्चा हुई एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण
से जुड़ा विषय विमर्श के केंद्र में आया, एवं विश्व के अनेक देशों ने पर्यावरण संरक्षण
की दिशा में साथ चलने की बात कही | पृथ्वी दिवस मनाने की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र
ने 1970 में की थी और प्रत्येक वर्ष 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस मनाने
का संकल्प लिया गया था जिसका उद्देश्य पृथ्वी के प्रति लोगों को जागरूक करना एवं संवेदनशील
बनाना था, वर्ष 2009 से इसे अन्तर्राष्ट्रीय पृथ्वी दिवस
का नाम दे दिया गया | वैश्विक स्तर पर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कार्य करने वाली
संस्थाओं ने पिछले कुछ वर्षों में जन जागरूकता से जुड़े विविध कार्य किये हैं, एवं पृथ्वी
पर जीवन सुनिश्चित रखने की दिशा में वैश्विक प्रयास की उम्मीद दिखी | हालाँकि यह सभी
प्रयास त्रिस्तरीय पर्यावरण संरक्षण कार्य-योजना में पहले स्तर पर ही दिखलाई देता है,
एवं लोगों ने पर्यावरण से जुड़े विषय पर सोचना शुरू किया है | जिस दिन लोग पर्यावरण
संरक्षण की दिशा में कार्य करना एवं पर्यावरण को बचाने की प्रक्रिया में सम्मिलित होना
शुरू कर देंगे, यह पृथ्वी एक बार फिर से जैव विविधता की दृष्टि से समृद्ध हो जायेगी
|
हमें यह समझना होगा कि धरा, हमारे जीवन
का आधार है | हमें यह भी समझना होगा कि पृथ्वी सिर्फ मानव की नहीं है, यह पृथ्वी लाखों
जीव जन्तुओं एवं वनस्पतियों की भी है | भारतीय मनीषियों ने प्राचीन काल में ही इस संकल्पना
को प्रस्तुत किया जिसे हम ‘शांति मन्त्र’ सहित वेद-पुराण में उल्लेखित अनेक मन्त्रों के रूप में देख सकते
हैं जिसमें इस पृथ्वी की समग्र इकाईयों के प्रति आदर भाव व्यक्त किया गया है |
शांति मंत्र मन, शरीर के साथ ही पर्यावरण में शांति स्थापित करने पर बल देता है |
विकास की प्राचीन भारतीय अवधारणा प्राकृतिक संसाधनों के प्रति संवेदनशीलता प्रकट करती
है जबकि मनुष्य की उपभोक्तावादी सोच असंवेदनशीलता | जल, जंगल और जमीन के प्रति संवेदनशील
रहकर हम पृथ्वी पर जीवन को सुनिश्चित रख सकते हैं, अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब हम
अति-लोभ के कारण अपने साथ ही पृथ्वी पर रहने वाले समस्त जीव-जन्तुओं के अस्तित्व के
सामने संकट पैदा कर देंगे | जनसंख्या के बोझ से भी पृथ्वी दबती जा रही है, एवं यह जनसंख्या
भार प्राकृतिक संसाधनों का काल बनता जा रहा है | विश्व की वर्तमान जनसंख्या लगभग 8.2 अरब
हो चुकी है जिसकी बढ़ती आवश्यकताओं एवं मानवीय लोभ के कारण पृथ्वी पर जीवन कठिन होता
जा रहा है, एवं अनेकानेक जीव-जंतु एवं वनस्पतियाँ लुप्तप्राय हो चुकी हैं | ऐसे में
हमें पृथ्वी पर पारिस्थितिकीय तंत्र को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए जन-जन को
संवेदनशील बनाना होगा | पृथ्वी के प्रति आदर का भाव एवं अन्य जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों
के प्रति संवेदनशील आचरण के साथ हम सही मायने में पृथ्वी दिवस की सार्थकता सिद्ध कर
सकते हैं |
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