कितना बदल गया इंसान

खुद को खुदा समझे , फरिश्तों को शैतानपाप को गरिमा समझे , पतन को उत्थान । ।
हैवानियत की हद पर कर , बन गया हैवानकितना बदल गया इंसान ...
निजी स्वार्थों के खातिर , स्वजनों की बलि चढायेपल में बदल मुखौटा , गिरगिट सा रंग दिखाए । ।
जिसमे हो हित साधन उसका , माने उसको ज्ञानकितना बदल गया इंसान ...
लोभ द्वेष पाखंड की , रोज ही धुनी रमायेझूठ कपट और हिंसा संग , अपना कदम बढ़ाये । ।
सत्य अहिंसा प्रेम से आज , बन बैठा अनजानकितना बदल गया इंसान ...
सज्जनों की अनदेखी कर , दुर्जन को गले लगायेप्रीति परायी के खातिर , खुद का घर जलाये । ।
आगे बढ़ने की होड़ में , बन बैठा पाषाण । कितना बदल गया इंसान ...

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