कितने सोशल हैं हम?

किसी भी समाज का ताना-बाना सामाजिक सम्बन्धों से बुना होता है। सामाजिक सम्बन्ध  न सिर्फ समाज की बुनियाद रखते हैं बल्कि उसकी संरचना को भी परिभाषित करते हैं। प्राचीन काल से ही भारतीय समाज को एक आदर्श समाज का दर्जा मिला हुआ है। विभिन्नताओं से भरा हुआ यह समाज विश्व भर में अनेकता में एकता के लिए जाना जाता है। जब भी सामाजिक मूल्य की बात होती है, संस्कारों की बात होती है, संवेदनाओं की बात होती है, संस्कृति की बात होती है, यह अगुआ की भूमिका में नजर आता है।पर  हजारों साल पुराने इस समाज को वेस्टर्न कल्चर का अनुकरण महंगा पड़ रहा है।कन्ज्युमरिज्म की सोच विकसित होने के साथ ही इसकी मजबूत दीवारें दरकने लगी हैं। विश्व को रिश्तों का ककहरा सिखाने वाले  हमारे समाज में रिश्तों का  रोज ही खून किया जा रहा है। अपने आपको मॉडर्न कहने वाले लोग आधुनिकता के नाम पर एक ऐसे समाज का निर्माण करने में लगे हैं जहाँ रिलेशन्स की कोई वैल्यू नहीं है। समाज की सबसे मजबूत इकाई परिवार का अस्तित्व मिटने के कगार पर है। मुंहबोले भाई द्वारा राखी का कर्ज चुकाने वाले इस समाज में जब सगा भाई बहन की इज्जत रोंदता है तो सदियों से समाज को रिश्तों की सीख देने वाले इस देश की साख पर बट्टा लगना तय है। अपनी आँखों की नूर बिटिया को जब कोई भेड़िया बाप हवस का शिकार बनाता है तो रिश्तों का खून होना लाजिमी है। आजीवन पत्नी की रक्षा करने की कसमे खाने वाला पति जब खुद ही उसके इज्जत का सौदा करने लगे तो समाज में रिश्तों की दीवारों का दरकना गैरवाजिब नहीं लगता। देवी के रूप में स्त्री को पूजने वाला समाज जब उसे सेक्स टॉय के रूप में देखने को आतुर हो तो उस समाज की गन्दी मानसिकता को आसानी से समझा जा सकता है। अब फैसला हमे करना है की वाकई हम सोशल कहलाने लायक हैं?

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