आतुर ख़बरिया चैनलों की दिशा
ख़बरिया चैनल व्यक्ति की जानने की इच्छा व
जिज्ञासा को शांत करने के साथ ही उन्हें स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय
सूचनाओं तथा गतिविधियों से अवगत कराते हैं । २४*७ की रथ पर सवार इन
चैनलों का काफ़िला जैसे- जैसे आगे बढ़ता जा रहा है, सामाजिक सरोकार जैसा मीडिया का
बुनियादी तत्व इनसे गायब होता जा रहा है। सबसे आगे और सबसे तेज की
अवधारणा ने न सिर्फ ख़बरों की गुणवत्ता को प्रभावित करने का कार्य किया है अपितु कई
अवसरों पर इनकी विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। आज कतिपय लोगों द्वारा सत्ता
का लाभ प्राप्त करने के लिए प्रसारण चैनल शुरू किये जा रहे हैं। सरकार पर दबाव बनाना हो या फिर किसी मुद्दे को
खड़ा करना, इन चैनलों का जवाब नहीं । उपभोक्ता बाज़ार को
लेकर चैनलों की बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने ख़बरिया चैनलों की रुपरेखा ही बदलकर रख दिया
है । अब ये चैनल तटस्थ
रहकर ख़बरों को प्रस्तुत नहीं करते बल्कि कभी आलोचक तो कभी निर्णयकर्ता के रूप में
नजर आते हैं ।
किसी भी कीमत पर ख़बर हासिल करना एवं उन ख़बरों को
बाज़ार की मांग के अनुरूप प्रस्तुत करना आज के ख़बरिया चैनलों का धर्म बन गया है । टी आर पी की अंधी दौड़ में
शामिल ये चैनल ख़बरों को सनसनीखेज बनाकर प्रस्तुत करने से भी गुरेज नहीं करते। मीडिया ट्रायल जैसी विसंगति
भी इनपर हावी होती जा रही है। मीडिया ट्रायल के जरिये ये न सिर्फ सरकार के काम काज को
प्रभावित करते हैं बल्कि जनमानस की भावनाओं पर भी प्रभाव डालते हैं। न्यायालयों में चल रहे
मुद्दों पर न सिर्फ ये चर्चा करते नजर आते हैं बल्कि अपना निर्णय भी सुनाते नजर आ
जाते हैं । खबरों की आतुरता इन्हें इस कदर अँधा बना चुकी है कि संवेदनशील मुद्दों को भी
ये लाइव दिखाते नजर आते हैं । चाहे मुम्बई स्थित ताज होटल पर हमले का प्रकरण हो या फिर
हाल ही में हुआ पठानकोट हमला, ख़बरिया चैनलों की संवेदनहीनता साफ़ तौर पर दिखी । ९ फरवरी को जे एन यू
विश्वविद्यालय में देशविरोधी नारे लगने वाली ख़बर पर भी मीडिया ट्रायल देखने को
मिला । किसी को भी दोषी
साबित करने या फिर क्लीनचिट देने में भी ख़बरिया चैनल देर नहीं लगाते । तथ्यों की जाँच पड़ताल में
समय गवाना शायद इन्हें मंजूर नहीं क्योंकि ब्रेकिंग न्यूज़ की दौड़ में पिछड़ना
इन्हें अच्छा नहीं लगता । इन चैनलों की आतुरता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकार कुछ भी
फैसले ले, चाहे वो फैसलें देशहित में ही क्यों न हो, विपक्ष के कुछ नेताओं को
पकड़कर आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने में ये अपना फ़र्ज समझते हैं ।
राजनैतिक दलों द्वारा पोषित ख़बरिया चैनल अपने
आकाओं को खुश करने के लिए किसी भी हद तक जाने से गुरेज नहीं करते । ख़बरों को तोड़- मरोड़ कर
प्रस्तुत करना हो या फिर राजनैतिक आरोप- प्रत्यारोप की आवाज़ बुलंद करना, सामाजिक
उत्तरदायित्व से इतर ये चैनल पूंजी के खेल में शामिल दिखाई पड़ते हैं । ख़बरों को तथ्यों एवं सत्य
की कसौटी पर न रखकर ये चैनल नफा – नुकसान की तराजू पर तौलते हैं। बढ़ते व्यावसायिक हित ने इन
चैनलों की धार को इतना कुंद कर दिया है कि पूंजीपतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाने से ये
न सिर्फ़ कतराते हैं बल्कि विज्ञापनों का ताला इनका मुंह बंद कर देता है । कहीं कोई विज्ञापनदाता
नाराज न हो जाय इस बात का ध्यान सबसे पहले दिया जाता है । औद्योगिक घरानों द्वारा ख़बरिया चैनलों में पूंजी निवेश ने ख़बरों की
अन्तर्वस्तु को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। अब औद्योगिक घराने अपने हित के अनुरूप ख़बरों का स्वरुप निर्धारित करते हैं । ख़बरों को मुनाफ़ा देने वाले प्रोडक्ट के रूप में
प्रस्तुत करना, ख़बरों को सनसनीखेज बनाने में भी इन चैनलों का कोई सानी नहीं । राई को पहाड़ बनाकर
प्रस्तुत करने में तो इन चैनलों को महारथ हासिल है ।
किसी भी आलोचना का आधार तर्क होना चाहिए परन्तु
जब आलोचना में पूर्वाग्रह शामिल हो जाता है तो यह मीडिया को मिले अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता को न सिर्फ प्रभावित करता है बल्कि उसे स्वछन्दता जैसे दलदल के तरफ भी
धकेल देता है । आतुर होते ख़बरिया चैनल अक्सर ही स्वतंत्रता एवं स्वछन्दता
के बीच की पतली रेखा को मिटा देते हैं जो न समाज हित में है और न ही देश हित में । ख़बरिया चैनलों को
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ ही संविधान में उल्लिखित ८ युक्तियुक्त निर्वर्धनों
का भी ध्यान रखना चाहिए। आलोचना का मकसद
विकास के राह में रोड़ा उत्पन्न करना नहीं बल्कि विकास प्रक्रिया में मौजूद कमियों
को उजागर करना होना चाहिए। चैनलों का काम सिर्फ़ लोगों
को वस्तुस्थिति से अवगत कराना है न कि किसी विचार को उनके ऊपर थोपना। जल्द से जल्द ख़बर देने के चक्कर में तथ्यों की विश्वसनीयता न परखने की भूल कई
बार गम्भीर संकट उत्पन्न कर देती है और उसका खामियाजा किसी न किसी रूप में समाज और
देश को भुगतना पड़ता है। न्यूज़ ब्रेक करने के चक्कर में अक्सर ख़बरिया चैनल इस बात की तस्दीक करना
जरुरी नहीं समझते की मरने वाला अवस्थामा हाथी था या फिर गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र। उन्हें तो सिर्फ ख़बर बेचने की जल्दी होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ख़बरिया चैनल जल्दबाजी के होड़ में
अपनी दिशा से भटक से गये हैं ।
Kya bat h
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