अपना मुकद्दर
दम तोड़ देती हैं, कई नदियाँ सफ़र में |
हर नदी को नसीब, समुंदर नहीं होता ||
बनाते हैं मजदूर जो, दूसरों के महल |
उन दिहाड़ियों का खुद, घर नहीं होता ||
दर्द को लगाते हैं, हँसकर गले कुछ |
हर दर्द जमाने का, ज़हर नहीं होता ||
देखा है खुश्क शज़र, दरिया के पास |
हर दरख़्त हरा हो, मुकद्दर नहीं होता ||
महरूम रह जाते हैं, प्यार की दो बूँद से |
हर शख्स को,अमृत मयस्सर नहीं होता ||
गाँव से देखा है, रोज शहर जाते कई |
हर बंजारे का अपना, शहर नहीं होता ||
लौट आते हैं थक हार, जमाने में कुछ |
ख्वाबों सा हसीं, हर सफ़र नहीं होता ||
उग जाते हैं रेगिस्तान में, प्यार के बीज |
हर रिश्ता हमेशा तो, बंजर नहीं होता ||
जो मिला है 'दीप', उसे नियामत समझो|
नींद के लिए जरूरी, बिस्तर नहीं होता ||
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