एक है जो...



नफरतों के दौर में प्यार बाँट रहा,

शुष्क मौसम में बहार बाँट रहा |

कट गये हैं जड़ों से हजारों तरुण,

ऐसे वर्धमानों में संस्कार बाँट रहा ||

बढ़ रही है पीड़ा, कुंठा और संत्रास,

अपनों से दूरी का कड़वा एहसास |

दब रही है हँसी दुखों के पहाड़ से,

मुस्कुराहट की हल्की फुंहार बाँट रहा ||

बंज़र हो रही है जो उपजाऊ धरा,

हरेक आँगन है आज सूना पड़ा |

देहरी को तकती हैं पथराई आँखें,

ऐसी दीदाओं को संसार बाँट रहा ||

पाया है कुछ तो खोया बहुत है,

अपनों को खोकर रोया बहुत है |

पपीहा सा प्यासा मुसाफिर कोई,

हर प्यासे को जल-धार बाँट रहा ||

 

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