चलो हिन्दी दिवस मनाते हैं (व्यंग्य)


 

कुछ दिन पहले एक कवि सम्मलेन में जाने का मौका मिला । इस सम्मलेन का आयोजन हिंदी की रोजी रोटी खाने वाली एक बड़ी संस्था ने किया था । हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित इस कवि सम्मलेन में कई मूर्धन्य कवि पधार रहे थे। इन मूर्धन्य कवियों के बीच मेरा कद इतना बड़ा ही था जितना किसी हिंदी-भाषी क्षेत्र से आये छात्र का अंग्रेजी माध्यम से पढाई करने वाले छात्रों के बीच होता है । अंग्रेजियत के माहौल में पले बढ़े इन महानुभावों के बीच बैठकर  मेरा वही हाल हो रहा था जैसाकि किसी निगमीय कार्यालय में साक्षात्कार के लिए बैठे हिन्दीभाषी प्रतिभागी का होता है । बराबर की कुर्सी पर मुझ जैसे निरीह प्राणी को देखकर एक सज्जन से नहीं रहा गया, परिणाम स्वरुप उनके शब्द बाण का मुझे शिकार होना पड़ा । मसलन आप कहाँ से हैं ? आपको पहले कभी नहीं देखा , क्या आप हिंदी में कवितायेँ ...? इत्यादि प्रश्न सुनकर मै दंग रह गया। भारत जैसे देश में जहाँ हिन्दी दिवस मनाया जाता है, ऐसे सरस्वती पुत्र का योगदान गाथा सुनकर ऐसा लग रहा था कि महोदय को अभी अभी भारतेंदु पुरस्कार से नवाजा गया हो । मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि हिंदी दिवस पर काव्य पाठ के लिए आमंत्रित किये जाने वाले व्यक्ति की सोच ऐसी हो सकती है । वैसे तो मुझ जैसे साहित्यकार का दिल्ली जैसे महानगर में उतना ही बड़ा कद है जितना कि समुद्र में एक लोटे जल की । आज सुबह से ही मेरा दिल बैठा जा रहा था । वैसे तो दस साल के दिल्ली प्रवास ने मुझे अंग्रेजी राग़ का गुलाम बनाने की भरसक कोशिश किया था परन्तु हिन्दी की चासनी में लिपटे मेरे विचार मुझे कभी अकेले नहीं होने दिए । परिणामस्वरूप आज भी हिन्दी को ही जीना चाहता था । कई बार मुझे इसका नुकसान भी उठाना पड़ा परन्तु सावन के गधे को जैसे हर तरफ हरा दिखाई देता है ठीक वैसे ही मुझे हिन्दी ही दिखलाई पड़ती है । चाहकर भी यह मेरी सोच से अलग नहीं होती ।

खैर ! यह सोचकर मैं काफी परेशान हो रहा था कि वहाँ जाकर बोलूँगा क्या ? अपने काव्य संकलन से कुछ कवितायें तो निकाल लिया था परन्तु एक डर सता रहा था कि मेरी संवेदनशील कवितायें कहीं टमाटर न पड़वा दें, फिर ख्याल आया कि टमाटर इस समय काफी महंगा मिल रहा है । अतः कोई भी श्रोता ऐसा नहीं करेगा । बहरहाल काव्य पाठ आरम्भ हुआ। अध्यक्षीय उद्बोधन से लेकर संचालन एवं काव्य पाठ के दौरान कई महानुभाव  हिंदी राग अलापते रहे। रोमन लिपि में लिपीबद्ध अंग्रेजी के शब्द तालियाँ बटोरते रहे। अपने ही देश में दोयम दर्जे की जिंदगी जीने को विवश हिंदी की दशा का  तथाकथित सरस्वती पुत्रों ने जो राग अलापा, शायद पन्त और निराला  की आत्मा भी स्वर्ग में कराह उठी होगी । इन कवियों का वश चलता तो वो आज ही हिन्दी को उसका हक दिलाकर दम लेते । आखिर सरकार भी तो हिन्दी के उत्थान के लिए दिन रात एक कर रही है । अब सरकार के नीतियों का गुणगान किये बिना ये कविवर कैसे रहते । डिजिटल मीडिया के प्रसार ने भले ही हिन्दी को पीछे ढकेल दिया हो, सरकारी विभागों ने हिन्दी पखवाड़ा मनाकर इसका सारा कर्ज चुकता कर दिया हो, और अब वह पूरे साल अपना कार्य अंग्रेजी में कर सकते हों । कान्वेंट से शिक्षा ग्रहण किये कवियों ने हिन्दी के ऊपर आज जो एहसान किया, उससे यह भाषा कभी कर्जमुक्त नहीं हो सकती । इस दौरान मैं भी हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में लिखे कुछ छंद प्रस्तुत किया, जिसका हाल संसद में किसी निर्दल सांसद के वक्तव्य जैसा हुआ। न तो सभागार में उपस्थित कवि मित्रों को मुझसे कोई सरोकार था और न ही ‘यू नो’ पीढ़ी के श्रोताओं को मेरी कविताओं से । हद तो तब हो गयी जब माननीय मुख्य अतिथि हिंदी का राग अलापने लगे । स्वर और छन्द का बेमेल संयोजन मुख्य अतिथि जी के चेहरे से कुछ पल में ही हिंदी का मुखौटा उतार चुका था । अब कवि से नेता बने मुख्य अतिथि जी के पास हिंदी की दुर्दशा पर घडियाली आंसू बहाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था । उन्होंने हिन्दी की दुर्दशा के लिए पूर्ववर्ती सरकारों को जमकर कोसा और सभागार में उपस्थित श्रोताओं से वादा किया कि उनकी सरकार २०२४ तक हिन्दी को कश्मीर से कन्याकुमारी तक पहुंचाकर दम लेगी । उन्होंने इस अवसर पर अपने कार्यकाल में जल्द ही शुरू किये जाने वाले हिन्दी पुरस्कारों की भी चर्चा की जिसे सुनकर वहाँ उपस्थित कवियों की टोली के मुँह से लार टपकने लगा । अतिथि महोदय हिंदी के प्रति प्रेम का राग अलापकर ज्योंहि शान्त हुए, संचालक महोदय ने माखन की बालटी उड़ेल दी । मंचासीन कविगण भी मंत्री जी को अपनी-अपनी उपलब्धि बताने में व्यस्त हो गये । संचालक महोदय को इस बात का डर सता रहा था कि मंच पर बैठा कोई कवि, शुरू किये रहे पुरस्कार को हासिल करने के लिए मंत्री जी से जुगाड़ न कर ले । उनके चेहरे पर सिकन और आवाज में कम्पन्न को मंत्री जी शायद समझ चुके थे । इसीलिए उन्हें पास बुलाकर उनके कान में कुछ कहा जिसके बाद संचालक महोदय के चेहरे पर चमक सी आ गयी । शायद उन्हें हिन्दी के नये पुरस्कार प्राप्ति का आश्वासन मिल चुका था । संचालक महोदय सब कुछ भूलकर मुख्य अतिथि महोदय जी की आरती शुरू कर चुके थे जबकि सभागार में उपस्थित कवियों के मुँह लटक चुके थे । मुख्य अतिथि महोदय भी संचालक महोदय की आरती से प्रसन्न हुए और संस्था को 5 लाख देने की घोषणा के साथ ही संचालक जी को हिंदी के प्रचार प्रसार वाली  इस हिन्दी सेवा  संस्था का अगले पांच वर्षों तक पुनः अध्यक्ष चुने जाने की अनौपचारिक बधाई भी दे डाली । कार्यक्रम के संचालक सह संयोजक महोदय का उद्देश्य पूरा हो चुका था । कार्यक्रम के समापन के बाद हिन्दी का राग़ अलापने वाले मूर्धन्य रंगीन पानी में डुबकी लगा रहे थे । कुछ क्षण पहले हिन्दी के उद्धार की कसमें खाने वाले इन महानुभावों के चेहरे से हिन्दी का मुखौटा उतर चुका था जिसके पीछे अंग्रेजियत का काला रंग स्पष्ट  रूप से दिख रहा था ।

 

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