आखिर कब थमेगी ‘मुफ्त’ की सियासत ?

 


देश के दो प्रमुख राज्यों में चुनाव का माहौल है, और चुनावी दंगल में हिस्सा ले रहे राजनीतिक दल अधिक से अधिक संख्या में मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए दांव-पेंच अपना रहे हैं | पिछले कुछ चुनावों की भांति ही राजनीतिक दलों द्वारा इस बार भी ‘मुफ्त’ का दांव लगाकर सत्ता प्राप्त करने की जुगत देखी जा सकती है | चुनावी वादों के रूप में की गयी ‘मुफ्त’ घोषणाएं सरकारी नीतियों पर नकारात्मक असर डालने के साथ ही अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित कर रही हैं | चुनाव पूर्व की गई ऐसी घोषणाएं मतदाताओं के मन में लालच पैदा करने के साथ स्वस्थ लोकतंत्र के लिए भी घातक है | चुनावी घोषणा पत्र अब ‘मुफ्त’ की सियासत का वह प्रमुख हथियार बन चुका है जो लोकतंत्र को छलनी कर रहा है, एवं चुनाव आयोग चाहकर भी इसे रोक नहीं पा रहा है | यहाँ तक कि देश के प्रधानमंत्री भी रेवड़ी संस्कृति के बढ़ते चलन पर चिंता जता चुके हैं और देश की उन्नति में इसे बाधक बता चुके हैं | ‘मुफ्त’ की सियासत कोई नई बात नहीं है, एवं पूर्व में भी राजनीतिक दलों द्वारा लोक-लुभावन वादे किये जाते रहे हैं | दिल्ली की राजनीति में पदार्पण के समय आम आदमी पार्टी ने इस सियासत को एक नये तरीके से परिभाषित करने का कार्य किया, एवं मुफ्त बिजली-पानी की सियासत को धार देने का कार्य किया | इस पार्टी ने जहाँ-जहाँ भी चुनाव लड़ा, दिल्ली में अपनाये गये इस सफल फ़ॉर्मूले के साथ चुनाव लड़ा | दिल्ली एवं पंजाब में आम आदमी पार्टी को सफलता मिली परन्तु अन्य राज्यों में उनका यह दाव सफल नहीं हो पाया | हालाँकि सफलता एवं असफलता सिर्फ चुनावी वादों से जुड़ी हो सकती है, इसमें संदेह ही है क्योंकि यह विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है |

कांग्रेस ने कर्नाटक एवं हिमाचल प्रदेश में मुफ्त योजनाओं की बौछार से वोटरों को खूब भिगोया, परन्तु सरकार बनने के बाद इन योजनाओं को लागू करने में उसे अनेकों चुनौतियों का सामना करना पड़ा, एवं कुछ योजनाएं तो कल्पनालोक में ही दम तोड़ गयीं क्योंकि इनको लागू करना न तो व्यावहारिक एवं तर्कसंगत था और न ही राजकीय कोष ही इसकी अनुमति देता था | हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने महिलाओं को दो हजार तो भारतीय जनता पार्टी ने इक्कीस सौ रूपये देने की घोषणा किया है | आम आदमी से प्रेरित होकर इस बार कांग्रेस ने भी हरियाणा में ३०० यूनिट मुफ्त बिजली देने का वादा किया है जबकि पार्टी द्वारा  जम्मू कश्मीर में हो रहे चुनाव में भी महिला एवं बेरोजगार युवाओं को ‘मुफ्त’ सियासत से आकर्षित करने का प्रयास किया गया है, एवं उन्हें अपने पाले में खींचने का प्रयास किया गया है | लोकसभा चुनाव के समय ‘खटाखट’ योजना भी चर्चा में थी जबकि बीजेपी की मुफ्त राशन योजना को भी विपक्षी दल मुफ्त की सियासत से जोड़ता रहा है | मध्य प्रदेश हो या पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु हो या महाराष्ट्र; चुनाव की घोषणा होते ही राजनीतिक दलों में ‘मुफ्त’ सियासत की होड़ लग जाती है | राजनीतिक दल कोई भी हो, वह ‘मुफ्त’ सियासत की नाव में बैठकर चुनावी वैतरणी पार करने की जुगत में होता है, वह कभी इस बात की ओर ध्यान नहीं देता कि इससे राज्य या फिर देश की आर्थिक स्थिति पर क्या असर होगा ? लोकतान्त्रिक देश में भावी सरकार से उसकी नीतियों एवं योजनाओं से जनता को अवगत कराने के लिए चुनाव आयोग घोषणा पत्र जारी करने की अनुमति देता है, परन्तु इस घोषणापत्र में उल्लेखित बातें तर्कसंगत एवं व्यावहारिक हैं कि नहीं ? चुनाव आयोग को इस पर भी ध्यान देना चाहिए | वर्तमान भारतीय राजनीति में जिस प्रकार से ‘मुफ्त’ योजनाओं का चलन बढ़ रहा है वह न तो लोकतंत्र के हित में है और न ही देशहित में है | राजनीतिक दल बड़े ही चालाकी से मतदाताओं को ‘मुफ्त’ के चक्रव्यूह में फंसा लेते हैं और मतदाता मुख्य मुद्दों से अलग होकर ठगी का शिकार हो जाता है |  

किसी भी सरकार द्वारा संचालित जन कल्याण योजनाओं एवं राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त देने की घोषणाओं में व्यापक अंतर होता है | सरकार द्वारा संचालित किये जाने वाली योजना को जहाँ वित्तीय कसौटी पर कसने के बाद लागू किया जाता है वहीं राजनीतिक दलों द्वारा किये गये मुफ्त के वादे अधिकतर सरकारी तराजू के आय-व्यय वाले पलड़ों से दूर ही होते हैं जिन्हें पूरी तरह से लागू करने के लिए उन्हें सरकार बनाने के बाद प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष कर बढ़ाना पड़ता है जिसका भार किसी न किसी रूप में जनता पर ही पड़ता है | सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय चुनाव के दौरान मुफ्त उपहार देने अथवा ऐसे प्रलोभन को घातक मानते हैं, एवं कई बार सार्वजनिक रूप से भी इस पर राय व्यक्त कर चुके हैं | सुप्रीम कोर्ट में भी इस प्रकार की सियासत के खिलाफ एक केस वर्ष २०२२ से लंबित है | अब प्रश्न यह उठता है कि ‘मुफ्त’ की यह सियासत मतदाताओं को रिश्वत देने का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रस्ताव है या फिर जनता के समक्ष पार्टी द्वारा प्रस्तुत जन-कल्याण योजनाओं की रूपरेखा | निश्चित तौर पर सुप्रीमकोर्ट एवं चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं की नज़र इस मुद्दे पर है और जल्द ही इसके सीमांकन की सम्भावना है | आने वाले समय में इस प्रकार की सियासत के भ्रमजाल से मतदाताओं को भी निकलना होगा, एवं ऐसे किसी भी प्रलोभन को नकारना होगा जिसका नकारात्मक असर आमजनता एवं देश पर पड़ सकता हो | इसके लिए चुनाव आयोग को भी मतदाताओं में जागरूकता लाने का प्रयास करना होगा, साथ ही चुनाव-पूर्व के राजनीतिक वादों पर नजर रखनी होगी | राजनीतिक दलों को भी ‘मुफ्त’ वादा करने से पहले यह उल्लेखित करना चाहिए कि जो धन इन मुफ्त घोषणाओं को पूरा करने के लिए खर्च किया जायेगा, वह धन कहाँ से आयेगा, एवं उसका आम जनता पर किस प्रकार का असर होगा ? यक्ष प्रश्न यह है कि ‘मुफ्त’ सियासत के बढ़ते चलन को कैसे रोका जाय ? निश्चित तौर पर यह एक जटिल प्रश्न है क्योंकि न तो वर्तमान परिस्थिति में राजनीतिक दल ऐसी मंशा रखते हैं और न ही मुफ्त योजनाओं का क्षणिक लाभ लेने वाली अधिसंख्य जनता ही ऐसी इच्छा शक्ति रखती है |

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